अपनी प्रगतिशील सोच से साहित्य को नया आयाम देने वाले नामवर सिंह नहीं रहे। डॉ. नामवर सिंह के रूप में न केवल हिन्दी साहित्य ने बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य ने एक बहुत बड़ा और विश्वसनीय चेहरा खो दिया। मंगलवार देर रात 92 साल की उम्र में दिल्ली के एम्स में उन्होंने अंतिम सांस ली और इसके साथ ही हिन्दी साहित्य के ‘नामवर युग’ का अंत हो गया। एक चलती-फिरती ‘संस्था’ जिनसे कई पीढ़ियों ने साहित्य की सही और सच्ची समझ हासिल की, बहुत बड़ी रिक्तता छोड़ हमसे रुख़सत हो गई। पिछले दिनों नामवर जी दिल्ली के अपने घर में गिर गए थे जिसके बाद उनके सिर में चोट लगी और उनको एम्स के ट्रामा सेंटर में भर्ती करवाया गया था।
नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को वाराणसी के जीयनपुर गांव में हुआ था। उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत कविता से की और 1941 में उनकी पहली कविता ‘क्षत्रिय मित्र’ में छपी। 1951 में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एमए किया और फिर वहीं हिन्दी के व्याख्याता नियुक्त हुए। इसके बाद उन्होंने सागर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया। लेकिन सबसे लंबे समय – 1974-1987 – तक वे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रहे। यहां से सेवानिवृत्त होने के कुछ वर्षों बाद उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा का चांसलर बनाया गया।
डॉ. नामवर सिंह ने हिन्दी साहित्य खासकर आलोचना को कई कालजयी कृतियां दीं जिनमें ‘कविता के नए प्रतिमान’ विशेष रूप से चर्चित है। ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’, ‘पृथ्वीराज रासो: भाषा और साहित्य’, ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’, ‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’, ‘कहानी: नई कहानी’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘हिन्दी का गद्यपर्व’, ‘वाद विवाद संवाद’, ‘आलोचक के मुख से’, ‘बकलम खुद’ आदि उनकी अन्य महत्वपूर्ण कृतियां हैं। उनकी जितनी प्रतिष्ठा इन पुस्तकों को लेकर थी उतना ही सम्मान उन्हें प्रखर वक्ता के तौर पर हासिल था और इन सबके ऊपर थी उनकी बेबाकी और साफगोई। कुल मिलाकर, उन्होंने हिन्दी साहित्य, खासकर आलोचना की विधा को जो ऊँचाई दी और जैसा सम्मान दिलाया उसकी कोई सानी नहीं।
साहित्य अकादमी समेत कई बड़े पुरस्कारों से सम्मानित नामवर सिंह नि:संदेह हिन्दी के सार्वकालिक महान साहित्यकारों में अग्रगण्य हैं। उन्हें हमारी विनम्र श्रद्धांजलि..!
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप