सत्ताइस साल पहले जिस रॉबर्ट मुगाबे के लिए विजय गीत गाए थे, उसी रॉबर्ट मुगाबे के सत्ता से बाहर होने पर जिम्बाब्वे जश्न मना रहा है। इस जश्न में तमाम ऐसे भी हैं, जिन्होंने किसी दूसरे शासक का शायद नाम भी न सुना हो। जो मुगाबे कभी उनकी आजादी का नायक हुआ करता था, उसी ने उनका भरोसा खो दिया और ऐसा खलनायक बन गया कि जनता उससे आजादी चाहने लगी।
खैर, मुगाबे का क्रूर शासन तो खत्म हो गया, लेकिन भविष्य को लेकर आशंकाएं कायम हैं। मुगाबे का इस्तीफा आसान नहीं था। इसके लिए सैन्य हस्तक्षेप से लेकर महाभियोग जैसे हथकंडे अपनाने पड़े। भविष्य में क्या होगा, यह पता नहीं, लेकिन अपने जिस उपराष्ट्रपति एमर्सन मननगाग्वा को मुगाबे ने बर्खास्त कर दिया था, फिलहाल सत्ता वही संभालने जा रहे हैं। अलग बात है कि जनता में उनके प्रति कोई उत्साह नहीं है। यह सच मननगाग्वा भी जानते हैं। उनके खाते में न तो मुगाबे के ‘आजादी के दौर’ वाली आभा का कोई अंश है, न ही लोकप्रियता का। इसके उलट सत्ता में रहते उनके भयानक रिकॉर्ड की चर्चाएं जरूर हैं। उनके हक में अगर थोड़ा कुछ है, तो यह कि वे जिम्बाब्वे को रॉबर्ट मुगाबे के आतंक से मुक्त कराने में सहायक बनकर उभरे।
मननगाग्वा की सारी उम्मीदें देश की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवन देने पर ही निर्भर हैं और इसके लिए उन्हें कम से कम तीन साल का वक्त चाहिए होगा। यह तभी संभव है, जब वे अगली गरमियों में होने वाले चुनावों को कम से कम तब तक के लिए टालने में सफल हो सकें। देश में विपक्ष की स्थिति यूं भी बहुत अच्छी नहीं है। विपक्ष जिस तरह कमजोर व विभाजित है, वह मननगाग्वा की राजनीतिक सेहत और भविष्य के लिए टॉनिक का काम करेगा। हां, अगर मुगाबे इस्तीफा न देते, तो शायद स्थितियां कुछ और होतीं। फिलहाल जिम्बाब्वे एक नई तरह की आजादी की सांस भले ले रहा हो, जनता के मन में आशंकाएं तमाम हैं। तमाम नागरिक समूह भी इन्हीं आशंकाओं में भविष्य का खाका बना-बिगाड़ रहे हैं। देखना है कि जनता ने जो चाहा है, उसे वह खुशी असल मायने में कब मिलती है?
बोल डेस्क [‘द गार्जियन’ से साभार]