31 अक्टूबर के साथ बड़ा अजीब संयोग जुड़ा है। इस दिन आधुनिक भारत के निर्माता सरदार वल्लभभाई पटेल की जयंती है, तो हिन्दुस्तान की लौह महिला इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि भी। दो विपरीत संदर्भ जहां इस दिन एक बिन्दु पर टकराते दिखते हैं, वहीं साल 2017 इसमें एक और कोण जोड़ रहा है। जी हां, यह वर्ष पटेल की पहली चुनावी जंग और इंदिरा गांधी के जन्म का शताब्दी वर्ष है। जनवरी 1917 में सरदार ने अहमदाबाद म्युनिसपैलिटी का चुनाव जीता था। उन्हें यह जीत महज एक वोट से मिली थी।
सरदार वल्लभभाई पटेल के व्यक्तित्व को जानने के लिए हमें उनके कृतित्व को दो भागों में बांटना होगा- आजादी के पहले, स्वतंत्रता के पश्चात। उनके बारे में जब भी बात होती है, तो उन्हें भारतीय एकीकरण का नायक बताकर लोग रुखसत हो लेते हैं, जबकि 1928 के बारदोली सत्याग्रह ने न केवल उनकी संवेदनशील नेतृत्व क्षमता को उजागर किया, बल्कि उन्हें नई पहचान भी दी। बारदोली की महिलाओं ने ही उन्हें ‘सरदार’ की उपाधि से नवाजा था। आप पूछेंगे, महिलाएं क्यों? इसकी भी एक अलग कहानी है।
यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि पटेल उन नेताओं में एक थे, जिन्होंने राजनीति में स्त्रियों के साथ भेदभाव का खुलकर विरोध किया था। सरदार ने ‘डिस्ट्रिक्ट म्युनिसिपल एक्ट’ से उस सेक्शन 15 (1) (सी) को खत्म करवाया, जो औरतों को चुनाव लड़ने से रोकता था। उनकी यह दलील थी कि निर्वाचित सदन से औरतों को बाहर रखने का मतलब अहमदाबाद की आधी आबादी के प्रतिनिधित्व को समाप्त करना है। इस नेक निर्णय के ठीक 40 बरस बाद यानि 1966 में इंदिरा गांधी ने बहैसियत प्रधानमंत्री हिन्दुस्तान की बागडोर सम्हाली थी।
पटेल के बरक्स इंदिरा गांधी वंशवाद की उपज थीं। उन्होंने समय गुजरने के साथ-साथ ‘एकोऽहम् द्वितीयो नास्ति’ की परंपरा को बल दिया। 1975 में इंदिरा ने देश पर आपातकाल तक थोप दिया, परंतु इससे भारत को ताकतवर बनाने में उनका योगदान खत्म नहीं हो जाता। सिक्किम के हिन्दुस्तान में विलय और पाकिस्तान के विभाजन के जरिए उन्होंने साबित कर दिया कि देश की सीमाओं में बढ़ोतरी के साथ सुरक्षा मामलों में वह अद्वितीय हैं। सिर्फ यही दो कार्य उन्हें अमर करने के लिए पर्याप्त हैं, हालांकि उनके खाते में और भी बहुत कुछ है। पटेल ने देश का एकीकरण किया था और नेहरू ने जमींदारी प्रथा का खात्मा। इंदिरा गांधी ने ‘प्रिवी पर्स’ खत्म कर देश से राजा-महाराजा युग को सदा-सर्वदा के लिए विदा कर दिया। उन्होंने ऐसे तमाम काम किए, जो आम आदमी के हक-हुकूक के लिए जरूरी थे। इसीलिए आपातकाल और ऑपरेशन ब्लू स्टार के बावजूद इंदिरा गांधी एक जनप्रिय शासक साबित हुईं। जिन लोगों ने 31 अक्टूबर, 1984 को उनकी हत्या के बाद देश भर में लोगों को रोते हुए देखा था, वे इसकी हामी भरेंगे।
अगर पटेल को आधुनिक भारत का निर्माता और इंदिरा गांधी को वर्तमान भारत की जननी कहा जाय, तो शायद कुछ लोगों को अच्छा न लगे, पर यह सच है कि इंदिरा के अलावा कोई अन्य प्रधानमंत्री आज तक न तो देश की सीमा को बढ़ा सका और न ही पाकिस्तान जैसे चिर शत्रु के टुकडे़ कर सका। रही बात उनसे जुड़े विवादों की, तो मैं इन्हें बुरा नहीं मानता। संसार के सबसे बडे़ लोकतंत्र को स्वस्थ ‘डिबेट’ का हक हासिल होना ही चाहिए। तकलीफ तब होती है, जब हम निजी छींटाकशी पर उतर आते हैं। थोथे तर्कों की यह कालिख न केवल हमारे पुरखों की मर्यादा को धूमिल करती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों पर वैचारिक प्रदूषण का अभिशाप भी थोप देती है। इससे बचने के लिए हमें किसी पटेल या इंदिरा की समीक्षा की नहीं, बल्कि अपने अंदर झांकने की जरूरत है। इस नेक काम के लिए 31 अक्टूबर से अधिक बेहतर भला और कौन सा दिन हो सकता है?
बोल डेस्क [हिन्दुस्तान में प्रकाशित शशि शेखर के आलेख ‘सियासी दलदल में पटेल-इंदिरा’ पर आधारित]