अमर्त्य सेन इस युग के भारत के श्रेष्ठतम बुद्धिजीवी हैं। अपनी नई किताब ‘द आइडिया ऑफ जस्टिस’ में उन्होंने एक महत्वपूर्ण पक्ष पर जोर दिया है कि न्याय और अन्याय के सवाल को अदालत में ही नहीं, बल्कि सार्वजनिक जीवन में बहस-मुबाहिसों के जरिए उठाया जाना चाहिए। सार्वजनिक विवाद, संवाद का अर्थ है – सूचनाओं का अबाधित प्रचार-प्रसार। यही वह बिंदु है, जहां पर मुक्त संभाषण या बोलने की स्वतंत्रता का विकास होगा।
अमर्त्य सेन ने किताबी न्याय और संस्थानगत न्याय की धारणा का निषेध किया है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि समाजवादी समाजों से लेकर अनेक पूंजीवादी समाजों में भी न्याय के बारे में बेहतरीन कानूनी, नीतिगत और संस्थानगत व्यवस्थाएं मौजूद हैं, मगर सार्वजनिक तौर पर अन्याय का प्रतिवाद करने की संभावनाएं न हों, तो न्यायपूर्ण संस्थान अन्याय के अस्त्र बन जाते हैं। समाजवादी समाजों का ढांचा इसी कारण बिखर गया। समाजवादी समाजों में यदि खुला माहौल होता और अन्याय का प्रतिवाद हुआ होता, तो वे धराशायी नहीं होतीं।
अन्याय के खिलाफ बोलने से न्याय का मार्ग प्रशस्त होता है। अन्याय का प्रतिवाद अभिव्यक्ति की आजादी और सार्वजनिक तौर पर खुला माहौल बनाने में मदद करता है और इससे न्याय का मार्ग प्रशस्त होता है।
बोल डेस्क [जगदीश्वर चतुर्वेदी की फेसबुक वॉल से साभार]