दुनिया में विभिन्न देशों के कई तरह के ‘क्लब’ और साझा हितों का ख्याल रखने वाले संगठन हैं, मगर इनमें से कोई भी उस अनौपचारिक संगठन की बराबरी नहीं कर सकता, जिसका हवाला संयुक्त राष्ट्र अक्सर देता रहता है। इस क्लब में गिने-चुने देश हैं – यूगांडा, जॉर्डन और तुर्की सरीखे। अपनी जमीन और मुल्क से दर-बदर शरणार्थियों के लिए पिछले कुछ वर्षों से इन देशों ने अपने दरवाजे खोले हैं, और पड़ोसी देशों के लाखों मुसीबतजदा लोगों को अपने यहां पनाह दी है। दरियादिल देशों के इस ‘क्लब’ में अब बांग्लादेश भी शामिल हो गया है। हाल के हफ्तों में इस दक्षिण एशियाई गरीब देश ने, जिसकी एक तिहाई आबादी दो डॉलर से भी कम में रोजाना की अपनी जिंदगी बसर करती है, म्यांमार (बर्मा) के पांच लाख रोहिंग्या शरणार्थियों को अपने यहां पनाह देने का एलान किया है। रोहिंग्या शरणार्थी बर्मा के फौजी दमन और बौद्ध राष्ट्रवादियों के उत्पीड़न के कारण बड़ी तादाद में पलायन कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, आज भी चार से पांच हजार रोहिंग्या रोज सरहद पार कर रहे हैं। रोहिंग्या शरणार्थियों की तादाद में अचानक हुई वृद्धि ने इसे सबसे तेजी से बढ़ने वाली शरणार्थी समस्या बना दिया है।
संयुक्त राष्ट्र ने बांग्लादेश में रोहिंग्या शरणार्थियों के वास्ते शिविर बनाने के लिए दुनिया से लगभग 43 करोड़ रुपये की सहायता राशि मुहैया कराने की अपील की है, क्योंकि वहां पर हालात बेहद दर्दनाक हैं। शरणार्थियों के हर पांच में से एक परिवार की मुखिया महिला रह गई है, तकरीबन पांच फीसदी परिवारों का दायित्व तो बच्चों के कंधों पर आन पड़ा है। इस समस्या को म्यांमार के साथ कूटनीतिक हल का इंतजार है, जिसके लिए विश्व समुदाय का उस पर दबाव भी है कि वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के दमन को तुरंत बंद कराए। दुनिया भर में तकरीबन साढ़े छह करोड़ लोग अपने मूल स्थान से बेदखल हुए हैं। इनमें से करीब दो करोड़ 20 लाख लोग तो शरणार्थी हैं। संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इस समस्या के समाधान के लिए न सिर्फ दुनिया भर की सरकारों को उदारता बरतनी चाहिए, बल्कि निजी क्षेत्र को भी इसमें बड़ी भूमिका निभानी चाहिए।
बोल डेस्क [‘द क्रिश्चियन साइंस मॉनिटर’, अमेरिका]