एक दौर था जब कमर्शियल फिल्मों के साथ-साथ समानांतर सिनेमा का भी अपना दर्शक वर्ग था। श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा जैसे समर्थ निर्देशकों ने ‘पार’, ‘भूमिका’ ‘अर्द्धसत्य’ और ‘दामुल’ जैसे कई क्लासिक दिए हैं, जिनमें एक आम आदमी की कहानी बिना किसी लाग-लपेट के कही गई। उसके बाद के दौर में ऐसा नहीं कि प्रयास नहीं हुए मगर उसमें बाजार की मिलावट साफ नज़र आने लगी। इस हफ्ते रिलीज हुई न्यूटन, नए निर्देशक अमित मसूरकर जिनकी अभी तक सिर्फ एक ही फिल्म रिलीज़ हुई है की दूसरी फिल्म, इतनी ईमानदार है कि आपको बरबस ही समानांतर सिनेमा का वह सुनहरा दौर याद आ जाता है जब श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी जैसे निर्देशक बेलाग फिल्में बनाते थे।
‘न्यूटन’ कहानी है एक आदर्शवादी लड़के (राजकुमार राव) की जिसका नाम तो है नूतन लेकिन, उसने अपना नाम न्यूटन (‘नू’ को न्यू और ‘तन’ को टन बनाकर) रख लिया है। यह आदर्शवादी लड़का ज़िन्दगी के हर पहलू में ईमानदार रहने की कोशिश करता है। ऐसे में चुनाव के दौरान उसकी ड्यूटी लगती है छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके में, जहां सिर्फ गिने-चुने वोटर हैं और यह इलाका नक्सलवाद से बुरी तरह से जूझ रहा है। ऐसे में न्यूटन क्या वहां पर निष्पक्ष वोटिंग करा पायेगा? इसी ताने-बाने पर बुनी गई है फिल्म ‘न्यूटन’।
इस फिल्म के बहाने बुलेट ट्रेन, स्काई वॉक और मॉल आदि से दूर जंगलों में लोकतंत्र के हालात देखकर दिल दहल उठता है। लोकतंत्र के नाम पर किस तरह आदिवासियों का मज़ाक बनाया जाता है, किस तरह सरकारी तंत्र ऐसे इलाकों को देखता है, यह बेहद संजीदगी से और ईमानदारी से मसूरकर ने हर फ्रेम में उकेरा है।
‘बरेली की बर्फी’ के यादगार किरदार के बाद राजकुमार राव न्यूटन की भूमिका में भी पूरी तरह से छाए रहे। पर्दे पर आप राव को नहीं बल्कि न्यूटन को ही देखेंगे। उनका साथ दिया है रघुवीर यादव ने। रघुवीर समर्थ कलाकार है और किरदारों को जीना उन्हें बखूबी आता है। अंजली पाटिल को अभी उस तरह के मौके नहीं मिले जिससे वह खुद को साबित कर पाए, मगर एक आदिवासी लड़की के तौर पर जो अभिनय उन्होंने किया है वह वाकई तारीफ के काबिल है। पंकज त्रिपाठी की उपस्थिति फिल्म दर फिल्म वजनदार होती जा रही है।
कुल मिलाकर ‘न्यूटन’ एक बेहतरीन और ईमानदार फिल्म है। अगर आप प्लास्टिक फिल्मों से दूर वाकई कुछ देखना चाहते हैं तो ‘न्यूटन’ नि:संदेह एक बेहतरीन विकल्प है। कहना गलत न होगा कि हर नाम का अपना एक अलग संस्कार होता है और अपने नाम (‘न्यूटन’) के अनुरूप (चाहे संदर्भ अलग ही क्यों न हो) ही इस फिल्म ने नई संभावनाओं को खोजा है।
बोल डेस्क