मुखर महिला पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या से पूरा भारत स्तब्ध है। मंगलवार को उन्हें बेंगलुरु स्थित उनके घर के बाहर सात गोलियां मारी गईं। चार गोलियां उन्हें लगीं और उन्होंने मौके पर ही दम तोड़ दिया। वह एक पत्रिका की प्रकाशक थीं और दक्षिणपंथी विचारों की मुखर आलोचक भी। 55 वर्षीया इस खबरनवीस की हत्या सहमति के विचारों (ऑन लाइन और असल जीवन, दोनों में) पर होते हमलों की ही अगली कड़ी है। कर्नाटक के ही ख्यात लेखक एमएम कलबुर्गी का अगस्त, 2015 में इसी तरह उनके घर पर कत्ल कर दिया गया था। कलबुर्गी भी दक्षिणपंथी विचारों की मुखालफत किया करते थे। उनकी हत्या से पहले दो अन्य खुली सोच रखने वाले शख्स – नरेन्द्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे – की भी महाराष्ट्र में हत्या हो चुकी है। लिहाजा, जांच अधिकारी गौरी लंकेश के कत्ल को हत्याओं के इसी पैटर्न से जोड़कर भी देख रहे हैं।
भारत में नाइत्तफाकी के स्वरों को, फिर चाहे वे तर्कवादी हों, लेखक या फिर पत्रकार, न सिर्फ खुलेआम प्रतारित किया जाता है, बल्कि नियमित तौर पर सोशल मीडिया पर धमकियां भी दी जाती हैं। सोशल मीडिया पर ऐसे हमले करने वाले लोग तो अपनी पहचान छिपाने तक की जहमत नहीं उठाते। मसलन, लंकेश के मामले में ही देखें, तो उनकी हत्या के बाद दक्षिणपंथी हिन्दुत्ववादी ताकतों ने ट्विटर पर खुलेआम उन्हें अपशब्द लिखे। यह सही है कि लंकेश का कत्ल कर्नाटक में किया गया है, जहां कांग्रेस की हुकूमत है, पर देश की कमान संभाल रही भारतीय जनता पार्टी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। यह सही है कि साल 2014 के बाद से, जब से भाजपा केन्द्र की सत्ता में आई है, जीवन के हर क्षेत्र में असहिष्णुता बढ़ी है; फिर चाहे बात शिक्षा की हो, सोशल मीडिया की या फिर सियासी बहस-मुबाहिसों की। जिन लोगों ने लंकेश की मौत के बाद उनके खिलाफ सोशल मीडिया पर अपशब्द लिखे हैं, उनमें से कम से कम एक को तो खुद प्रधानमंत्री ट्विटर पर फॉलो करते हैं। सत्तारूढ़ दल को यह समझना चाहिए कि विरोध की आवाज जीवंत लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अगर यह न हो, तो लोकतंत्र का वजूद नहीं।
बोल डेस्क [‘गल्फ न्यूज’, संयुक्त अरब अमीरात से साभार]