‘टॉयलेट: एक प्रेमकथा’ और ‘बरेली की बर्फी’ – लगभग साथ-साथ आईं ये दोनों फिल्में हवा के ताजा झोंके की तरह हैं। संयोग है कि ये दोनों ही फिल्में उत्तर प्रदेश से जुड़ी हैं। ‘टॉयलेट: एक प्रेमकथा’ उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव पर आधारित है तो ‘बरेली की बर्फी’ एक छोटे शहर बरेली की कहानी कहती है। कहानी और पटकथा का नयापन, पात्रों का चयन, कलाकारों का अभिनय, लोकेशन, फिल्मांकन, निर्देशन, संवाद और गीतों के बोल, प्यारी धुनें और इन सबमें गुंथी हुई अपनी मिट्टी की आत्मीय गंध – कुल मिलाकर ये फिल्में हमें हिन्दी सिनेमा के एक नए और शानदार पड़ाव पर ले जाती हैं। onlineNewsPortal of Bihar
श्री नारायण सिंह के निर्देशन में बनी ‘टॉयलेट: एक प्रेमकथा’ हमें दिखाती है कि कैसे हमारे अंधविश्वासी ग्रामीण, आलसी प्रशासन और भ्रष्ट नेताओं ने मिलकर भारत को गंदगी का तालाब बना रखा है। खासकर महिलाओं के साथ यहां बेहद असंवेदनशील तरीके से पेश आया जाता है। खेतों और खुले में शौच करने की हमारी पुरानी आदत (या मजबूरी) पर व्यंग्य करती यह फिल्म एक मजेदार प्रेम कहानी के बहाने हमें इस मुद्दे को लेकर जागरुक करती है कि घर में महिलाओं के लिए टॉयलेट होना कितना जरूरी है। onlineNewsPortal of Bihar
‘टॉयलेट: एक प्रेमकथा’ में जिद्दी केशव (अक्षय कुमार) खुले विचारों वाली जया (भूमि) से दिल लगा बैठता है जो कि उसके पास वाले गांव की रहने वाली है। कहानी आगे बढ़ती है, दोनों की शादी हो जाती है, लेकिन केशव उसे यह नहीं बता पाता कि उसके घर में टॉयलेट नहीं है। बस यहीं से दोनों की लड़ाई शुरू होती है और तलाक तक पहुंच जाती है। बड़ी बात यह कि ये लड़ाई व्यक्तिविशेष या उसके परिवार तक ही सीमित नहीं रहती, गांव और समाज भी इसका हिस्सा होता है। गांव में शौचालय के लिए लीड किरदार की लड़ाई याद रखने लायक है। पंडितजी (सुधीर पांडे) से लेकर सरपंच और चुलबुले काका (अनुपम खेर) तक के साथ उत्तर प्रदेश के देहातों की हर छोटी-बड़ी बात का ध्यान रखते हुए इसे फिल्माया गया है। एकदम अनछुए विषय पर बनी इस फिल्म में अक्षय कुमार दर्शकों का दिल जीतने में पूरी तरह कामयाब हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वो इस फिल्म की धुरी हैं, पर भूमि भी कमतर नहीं। उन्होंने भी अपनी भूमिका बड़ी शिद्दत से निभाई है।
‘बरेली की बर्फी’ को ‘दंगल’ फेम निर्देशक नीतेश तिवारी की पत्नी अश्वनी अय्यर तिवारी ने डायरेक्ट किया है। फिल्म की कहानी स्वयं नीतेश तिवारी ने श्रेयस जैन के साथ मिलकर लिखी है। कहानी के केन्द्र में है बिट्टी (कृति सेनन) जो अपने लिए एक ऐसे लड़के की तलाश में है जो उसे उसी रूप में अपना सके जैसी वो है। बिट्टी को उपन्यास पढ़ने का शौक है और उसे ‘बरेली की बर्फी’ के लेखक प्रीतम विद्रोही (राजकुमार राव) से प्यार हो जाता है। वह उसके खुले विचारों की कायल हो जाती है, पर परेशानी यह है कि उसे ढूंढ़े कैसे जाय। वह अपने प्यार की तलाश के लिए वहीं के एक प्रिंटिंग प्रेस के मालिक चिराग दूबे (आयुष्मान खुराना) की मदद लेती है और यहीं से कहानी का ट्विस्ट शुरू होता है। जिस चिराग को बिट्टी का प्यार ढूंढ़ना था वह खुद बिट्टी को प्यार करने लगता है।
अपने ढंग के अनोखे इस लव ट्राएंगल की कहानी फ्रेंच उपन्यास ‘इनग्रीडिएंट्स ऑफ लव’ से प्रेरित है। फिल्म के लीड और सपोर्टिंग कलाकारों की हरकतें हर बार आपको ठहाका लगाकर हंसने पर मजबूर कर देंगी। इसे देखकर एहसास होगा कि हमारी रोज की ज़िन्दगी में भी बहुत सी मजेदार चीजें हैं जिनका आनंद लेना हम भूल चुके हैं। अभिनय की बात करें तो अपने ऊपर साड़ी लपेट रहे सेल्समैन से लेकर गली के गुंडे तक के किरदार में राजकुमार राव एकदम से उतर जाएंगे आपके भीतर। आयुष्मान की नीयत इतनी सहजता से बदलती है कि आपको एहसास ही नहीं होता कि उनका किरदार कब अच्छे से बुरा हो गया। कृति सेनन जितनी प्यारी अपने प्यार को ढूंढ़ते बिट्टी के रूप में लगी हैं उतनी ही प्यारी एक बेटी रूप में। वहीं उनके माता-पिता की भूमिका में सीमा पाहवा और पंकज त्रिपाठी ने जान डाल दी है। इन सारे किरदारों को आप बार-बार देखना चाहेंगे। Online News Portal of Bihar
ये दोनों फिल्में इसलिए भी देखी जानी चाहिएं कि हम यह समझ सकें कि फिल्म की सफलता के लिए किस तरह ‘नाम’ से अधिक ‘काम’ जरूरी होता है। ये फिल्में इस बात पर मुहर की तरह हैं कि भारतीय दर्शक अब इतने परिपक्व हो चले हैं कि वे ‘ट्यूबलाइट’ और ‘जब हैरी मेट सेजल’ को नकार कर ‘टॉयलेट: एक प्रेमकथा’ और ‘बरेली की बर्फी’ को गले लगा सकें।
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप