चीन के नोबेल शांति पुरस्कार विजेता लिउ शिआओबो जेल से भले बाहर आ गए हों, लेकिन वह किसी भी मायने में आजाद नहीं हैं। उनके वकील तक उनसे बात तक नहीं कर पा रहे। वकील के अनुसार, अस्पताल के जिस कमरे में लिउ के अंतिम स्टेज के लीवर कैंसर का इलाज चल रहा है, वहां भी पुलिस है। मित्र तक उनसे नहीं मिल पा रहे। उनकी पत्नी को जरूर मिलने दिया गया, लेकिन उनसे भी कम लोग ही मिल पा रहे हैं। लिउ दंपति के एक मित्र द्वारा शेयर किए गए अत्यंत संक्षिप्त, लेकिन भयावह वीडियो में वह रोती हुई बता रही हैं कि उनके पति की सर्जरी, रेडियोथेरेपी या कीमोथेरेपी देने की स्थितियां भी खत्म हो चुकी हैं।
लिउ दंपति बीजिंग में अपने घर पर या कहीं और जाकर कुछ दिन सुकून के जीना चाहता है। चीन इसे भले ही मेडिकल परोल बता रहा हो, लेकिन चीनी कानून के एक विद्वान इसे ‘यंत्रणापूर्ण नियंत्रण’ का दूसरा रूप मानते हैं। चीन इस मामले में कुछ सुनना नहीं चाहता। उसका कहना है कि देश के नामी कैंसर विशेषज्ञ उनका इलाज कर रहे हैं और किसी अन्य देश को इस मामले में हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है। बीजिंग के लिए लिउ महज राष्ट्रद्रोह के अपराधी हैं, जिन्हें 11 साल की सजा मिली है, लेकिन सच तो यही है कि उनका अपराध सिर्फ इतना है कि वह अपने देश में लोकतंत्र की बहाली के लिए सुधार की मांग कर रहे थे। लिउ की गिरफ्तारी के बाद उनके समर्थक निशाने पर लिए गए। उन्हें नोबेल पुरस्कार भी नहीं लेने दिया गया।
इस माह की शुरुआत में ग्रीस द्वारा संयुक्त राष्ट्र में मानवाधिकार हनन के मामलों पर निंदा के बाद चीन में वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, सरकार विरोधियों और उनके परिवारों का और ज्यादा दमन शुरू हो गया है। नॉर्वे की नोबेल सोसाइटी के अध्यक्ष और चीन के साहसी लोगों ने लिउ दंपति की रिहाई के लिए आवाज बुलंद करके ठीक ही किया है। चीन को भी चाहिए कि उन्हें अपनी जिंदगी जीने दे। शेष विश्व को लिउ शिआओबो, उनकी पत्नी या इनके जैसे तमाम अन्य लोगों के हित में चीन से ऐसी ही अपेक्षा करनी चाहिए।
बोल डेस्क [‘द गार्जियन’, लंदन]