महान संगीतकार सज्जाद हुसैन साहब का जन्म-शताब्दी वर्ष (15 जून 1917 – 21 जुलाई 1995) शुरू हो गया है। एक ऐसे समय में, जब संगीत को लेकर प्रयोगों और तकनीकी की सबसे समृद्ध दशा में हमारा हिन्दी फिल्म संगीत पहुंच गया है, अपने दौर के उस फनकार को याद करना प्रासंगिक है, जिन्होंने तकनीकी को भी एक पक्ष की तरह अपनी कला-यात्रा में साधा। अरबी शैली के संगीत के टुकड़ों से अपनी धुनें सजाने में माहिर सज्जाद हुसैन ने ऐसे कई प्रयोग मौलिक तरह से ईजाद किए थे। ठीक उसी समय हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के व्याकरण से चुनकर राग-रागनियों के स्वरों का इस्तेमाल भी उनका पसंदीदा काम रहा। वह इस मामले में लीक से हटे हुए संगीतकार रहे। ‘संगदिल’, ‘सैयां’, ‘खेल’, ‘हलचल’ और ‘रुस्तम-सोहराब’ जैसी फिल्मों से अनूठा संगीत देने में सफल रहे सज्जाद साहब उस जमाने में पार्श्व गायकों व गायिकाओं के लिए कठिन फनकार थे, जिनकी धुनों को निभा ले जाना, सबके हौसले से परे की चीज थी। उनकी दुरूह संगीत शब्दावली को समझना हर एक के बस की बात नहीं थी। जन्म-शताब्दी वर्ष में इस लगभग भुला दिए गए, मगर जरूरी फनकार को याद करना तकनीकी, फन, मौसिकी और अभ्यास के कठिनतम सरोकारों को सहेजना है। उनकी तमाम धुनों की स्वर-संगति के दोलन व कंपन में फिल्म संगीत के कई अनसुलझे अध्याय बिखरे हुए हैं।
बोल डेस्क [यतीन्द्र मिश्र की फेसबुक वॉल से]