जलवायु परिवर्तन को लेकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के संकीर्ण नजरिये का आकलन अब सिर्फ आने वाली पीढ़ियां करेंगी, क्योंकि वही समुद्री जल स्तर के बढ़ने और गंभीर सूखे से प्रभावित होंगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि हमने जीवाश्म ईंधन से होने वाले उत्सर्जन को संजीदगी से नहीं थामा, तो फिर हमें बाढ़ और सूखे से त्रस्त भविष्य के लिए तैयार रहना चाहिए। अलबत्ता, अब यह पूरी तरह से साफ हो गया है कि राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियां अमेरिका के मित्र राष्ट्रों के लिए काफी निराशजनक हैं, अमेरिकी कारोबारी तबके के लिए छलावा हैं, महत्वपूर्ण उद्योगों में रोजगार सृजन व अमेरिकी प्रतिस्पर्द्धा के लिए बड़ा खतरा हैं और वैश्विक महत्व के मुद्दों पर अमेरिका के नेतृत्व संबंधी दावों को पलीता लगाने वाली हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर साल 2015 में हुए पेरिस समझौते से पीछे हटने का फैसला ट्रंप की इन्हीं नीतियों की अगली कड़ी है।
ट्रंप ने यह कहकर अपनी नीतियों का बचाव किया है कि पेरिस समझौता अमेरिका के हित में नहीं था। अपनी बातों को साबित करने के लिए उन्होंने ऐसे कई भ्रामक आंकड़े परोसे, जो उद्योग-पसंद स्रोतों से आए थे। उन्होंने नौकरियों के छीजने और आर्थिक संसाधनों के बाकी देशों के साथ बंटने का रोना रोया। मगर असलियत में ऐसा कुछ नहीं है। संक्षेप में कहें, तो पेरिस समझौते ने ट्रंप को उन बेवकूफी भरे कार्यों को करने से वैधानिक रूप से नहीं रोका था, जो वह करना चाहते थे।
पिछले कुछ महीनों में किसी भी विदेशी नेता से संवाद किए बिना उन्होंने हर उस नीति से कदम खींचने के आदेश दिए, जिनकी बुनियाद पर राष्ट्रपति ओबामा ने साल 2025 तक अमेरिका के ग्रीन हाउस उत्सर्जन को साल 2005 के स्तर से भी नीचे ले जाने का वादा किया था। ये नीतियां मुख्यत: कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों, ऑटो मोबाइल और तेल व गैस कुओं से होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने से जुड़ी थीं।
इस कदम से दुनिया भर में यही संदेश गया है कि यह राष्ट्रपति कुछ भी नहीं जानते या इन्हें इस वैज्ञानिक चेतावनी की रत्ती भर भी परवाह नहीं, जिसमें पर्यावरणीय खतरे के प्रति आगाह किया गया है।
बोल डेस्क [‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’, अमेरिका]