अपनी कलम से अंग्रेजों के शासन की नींव हिला देने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद में हुआ था। पत्रकारिता के इस महान पुरोधा का भारत के स्वाधीनता संग्राम में अविस्मरणीय योगदान रहा था। उनका देशप्रेम कुछ ऐसा था कि महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन और क्रांतिकारियों की गतिविधियों में वे समान रूप संलग्न और सक्रिय रहते थे। 25 मार्च 1931 को वे कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगों में निस्सहायों को बचाते हुए साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए। उनका शव अस्पताल में लाशों की ढेर में पड़ा मिला था। वह इस कदर फूल गया था कि पहचानना तक मुश्किल था। 29 मार्च 1931 को उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। मां भारती के इस अप्रतिम सपूत की दसवीं बरसी पर महात्मा गांधी ने एक संदेश भेजा था जो 25 अप्रैल, 1940 को ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ था। यहां प्रस्तुत है गांधीजी का वो संदेश जिसमें उन्होंने लिखा था –“मुझे तो उनके बलिदान पर ईर्ष्या है…”
गणेश शंकर विद्यार्थी की दसवीं बरसी पर महात्मा गांधी का संदेश
“मैं नहीं समझता कि श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का बलिदान व्यर्थ गया। उनकी आत्मा मुझे सदा प्रेरणा देती है। मुझे तो उनके बलिदान पर ईर्ष्या है। क्या यह दु:ख की बात नहीं है कि इस देश ने दूसरे गणेशशंकर विद्यार्थी को जन्म नहीं दिया। उनके बाद उनके स्थान की पूर्ति करने करने वाला कोई नहीं आया। उनकी अहिंसा सच्ची अहिंसा थी। अगर मैं भी सिर पर एक घातक चोट खाकर शांति से मर सकूं, तो मेरी अहिंसा भी पूर्ण अहिंसा होगी। मैं तो हमेशा ऐसी ही मृत्यु का स्वप्न देखा करता हूं और इस स्वप्न के पूरा होने की कामना किया करता हूं। वह मृत्यु कितनी सुन्दर होगी – एक ओर से किसी ने मुझे छुरा मारा हो, दूसरी ओर से कुल्हाड़ा, किसी दूसरी ओर से लाठी और चारों ओर से ठोकरें और अपमान; और अगर इन सब भर्त्सनाओं एवं अपमान में भी मैं स्थिति से ऊपर उठ सकूं और अहिंसक एवं शांत रहते हुए दूसरों से भी वैसा ही करने के लिए कह सकूं तथा अन्त में ओठों पर मुस्कुराहट के साथ मर सकूं तभी मेरी अहिंसा पूर्ण और सच्ची अहिंसा होगी। मैं ऐसे अवसर की खोज में हूं।”
बोल डेस्क [‘हिन्दुस्तान’ से साभार]