इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अब हम वहां पहुंच गए हैं, जहां ‘उदार’ तेजी से हाशिए पर धकेला जा रहा है और अनुदार डंके की चोट पर संसार भर में आगे बढ़ रहा है। भारत के अलावा तुर्की, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, अमेरिका में हर जगह अनुदार वापस आ रहा है व राजनीतिक स्पर्द्धा में विजयी हो रहा है। चीन, जापान, कोरिया, ऑस्ट्रेलिया भी अनुदार के विस्तार के घेरे में हैं। पूंजीवादी व्यवस्था अंतत: अनुदारता की सबसे बड़ी पोषक बनकर उभरी है। आधुनिकता के कुछ अतिचार निश्चय ही इस हालत के लिए जिम्मेदार हैं। पुराने सब कुछ को बाहर छोड़ने के उत्साह में शायद उसने इस बात को अनदेखा कर दिया कि मनुष्य पूरी तरह से वर्तमान में ही नहीं, कुछ अतीत में भी जीता है। अतीत-वंचित वर्तमान मनुष्य की सारी चिन्ताओं को संबोधित नहीं कर सकता। आधुनिकता की मूल प्रतिज्ञा में अतीत का ऐसा अस्वीकार नहीं था। जाहिर है, आधुनिकता ने अपनी मूल प्रतिज्ञाओं की अवहेलना करके एक तरह का अधकचरा विकास किया। उसने अपनी असहिष्णुताएं विकसित कर लीं और उनको संयमित करने के आत्मालोचक उपाय तज दिए। यह अधकचरापन पूरे संसार में घृणा-हिंसा-हत्या-विद्वेष का कचरा फैला रहा है। आर्थिक विकास सारे सांस्कृतिक-बौद्धिक-सर्जनात्मक विकास का दमन कर रहा है।
बोल डेस्क [‘सत्याग्रह’ में अशोक वाजपेयी]