करीब तेरह साल पहले, 14 अक्टूबर 2004 को यूनेस्को ने एडिनबर्ग को ‘साहित्य का पहला विश्व शहर’ चुना। कुछ लोगों ने उसकी तुलना में लंदन, पेरिस, न्यूयार्क, डबलिन वगैरह को ज्यादा उपयुक्त बताया था, लेकिन एडिनबर्ग के नाट्यगृह, प्रकाशन संस्थान, अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि के वार्षिक पुस्तक मेले, साहित्यिक संस्थाएं और इन सबसे अधिक वहां के लोगों के साहित्य-प्रेम के कारण उसे तरजीह दी गई। एडिनबर्ग के बाद जिन शहरों को इस सम्मान के लिए चुना गया, वे हैं – आयोवा सिटी, मेलबॉर्न, डबलिन, रिक्जाविक, नॉर्विच, क्राको, हीडलबर्ग, डुनेडिन, ग्रेनाडा, प्राग, बगदाद, बार्सिलोना, लूबिजाना, मोंटेवीडियो, नॉटिंघम, ओबिडोस, तार्तू और उल्यानोवस्क। अब 2016 का ‘साहित्य का विश्व शहर’ चुने जाने के लिए सही दावेदार की तलाश है। इसके लिए कोई भी शहर 16 जून तक अपना दावा कर सकता है। इसके बाद यूनेस्को द्वारा संचालित ‘यूनेस्को क्रिएटिव सिटीज नेटवर्क’ साहित्य के विश्व शहर का चुनाव करेगी। लेकिन शायद भारतीय साहित्यकारों और साहित्यिक संस्थाओं को यूनेस्को की इस योजना का पता नहीं है या हमारी सरकार को ही इस मामले में कोई रुचि नहीं है।
बहरहाल, हिन्दी भाषा और साहित्य के बल पर क्या इलाहाबाद, वाराणसी, भोपाल या किसी अन्य शहर का नाम प्रस्तावित किया जा सकता है? या मराठी भाषी मुंबई या पूना, गुजराती भाषी अहमदाबाद या बड़ौदा का नाम प्रस्तावित कर सकते हैं? क्या बांग्लाभाषी कोलकाता का नाम लेने ले चूकेंगे?
हिन्दी के हिसाब से ऐसा शहर ढूंढ़ना काफी मुश्किल है, जिसे ‘साहित्य का विश्व शहर’ घोषित किए जाने का दावा हो सके। वाराणसी और इलाहाबाद भले ही कभी हिन्दी साहित्य के गढ़ रहे हों, पर अब वह स्थिति नहीं है। जहां तक दिल्ली की बात है, भले ही वहां से राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाएं छप रही हों, कई हिन्दी साहित्यकार और प्रकाशक भी हैं, मगर यह उसे साहित्य के विश्व शहर का दर्जा नहीं दिला सकता।
यदि भारत के किसी शहर का नाम भारत से प्रस्तावित किया जा सकता है, तो वह केवल कोलकाता है। इस समय कोलकाता से प्रकाशित होने वाली लगभग 3,400 नियमित पत्रिकाओं में 1,581 बांग्ला, 978 अंग्रेजी, 362 हिन्दी, 110 उर्दू और बाकी भाषाओं की हैं। कुछ पत्रिकाएं द्विभाषी भी हैं। एशिया में सबसे पहला नोबेल पुरस्कार कोलकाता के रवीन्द्रनाथ ठाकुर को मिला। उर्दू के प्रसिद्ध शायर मिर्जा गालिब यहां वर्षों तक रहे। और कोलकाता को इस बात का श्रेय भी दिया जा सकता है कि बांग्ला के साथ ही हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, मैथिली, उड़िया, पंजाबी और उर्दू के भी कई जाने-माने लेखकों को यहां से प्रतिष्ठा मिली। चार्ल्स बादलेयर की बराबर इच्छा रही कि वह यहां आएं और मार्क ट्वेन तो यह शहर छोड़ना ही नहीं चाहते थे। किपलिंग और मैकाले के साथ ही गिंसबर्ग और गुंटर ग्रास का भी यह शहर प्रेरणा-स्थल रहा है। लेकिन कोलकाता की असली पात्रता इस आधार पर बनती है कि वहां के साहित्य ने दुनिया भर की अन्य भाषाओं के साहित्य को प्रभावित किया है। कोलकाता के साहित्यिक जीवन का मुख्य आधार वह सांस्कृतिक आदान-प्रदान है, अन्य भाषाओं में किए गए अनुवाद हैं, जिनसे उसकी अपनी अलग पहचान बनती है।
बोल डेस्क [‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित महेन्द्र राजा जैन के एक आलेख पर आधारित]