अफ्स्पा को लेकर 16 वर्षों तक अनशन करने वाली ईरोम शर्मिला वैसे ही हार गई हैं, जैसे मणिपुर में मनोरमा हार गई थीं, जैसे मनोरमा कांड में न्याय पाने के लिए नग्न होकर प्रदर्शन करने वाली महिलाएं हार गई थीं, जैसे बस्तर में मड़कम हिरमे और सुखमती हार गईं। इस हार को बदले आज ईरोम शर्मिला को समर्थन देने वाले एक फेसबुक पेज पर लिखा गया – ‘थैंक्स फॉर 90 वोट्स।’ ईरोम शर्मिला 16 साल से लड़ रही हैं और बार-बार हार रही हैं। वह कहती रही हैं कि सेना को वह अधिकार न दिया जाए, जिसके तहत वह किसी को शक के आधार पर गोली मार देने का अधिकार रखती है।
जिस तरह इस बार के चुनाव में नोटबंदी में मरे लोग कोई मुद्दा नहीं थे, जिस तरह उत्तर प्रदेश में कुपोषित आधी महिलाएं कोई मुद्दा नहीं थीं, जिस तरह डायरिया या इन्सेफलाइटिस से मरने वाले लाखों बच्चे कोई मुद्दा नहीं होते, उसी तरह ईरोम का 16 साल तक संघर्ष करके अपना जीवन दे देना कोई मुद्दा नहीं रहा।
जिस लोकतंत्र में हत्या के केस में जेल में बंद लोग चुनाव जीत जाते हों, वहां हत्याओं के विरोध में ज़िन्दगी खपा देने वाली ईरोम की हार तो जैसे पहले से ही तय थी। तमाम बाहुबलियों को भारी मतों से जिता देने वाली जनता ने आंसुओं से गीली आंखों वाला, नाक में नली डाले एक कवयित्री का चेहरा पसंद नहीं किया।
बोल डेस्क [‘द वायर’ में कृष्णकांत, सौ. ‘हिन्दुस्तान’]