नारी:
दुर्गा सप्तशती में जिसके एक सौ आठ नाम हैं
जिससे अर्द्धनारीश्वर की प्रतिमा पूरी होती है
खजुराहो में भांति-भांति की भंगिमाओं में खड़ी
मोनालिसा के रूप में मुस्कुराती हुई
जिसके बिना कविता ढलती नहीं, कहानी बनती नहीं
और उपन्यास उपन्यस्त नहीं होता
औरत:
जो सिर पर नि:संकोच ईंट, जलावन या पुआल ढोती है
जिसे हम देखते हैं हरिद्वार में हरकी पौड़ी पर नहाते हुए
‘मे आई हेल्प यू’ के काउंटर पर जिसका आधिपत्य होता है
जीबी रोड पर जो देह लिए बैठी होती है
और बच्चे को दूध पिलाती है आंचल से ढंककर
महिला:
सार्वजनिक शौचालयों में जिसके नाम की अलग तख्ती लगती है
पार्लियामेंट में जिसके लिए बिल आता है
जो धरना देती है दिल्ली के जंतर-मंतर पर
अखबार में जिसके बलात्कार की ख़बरें छपती हैं
और जो मुस्कुराती हैं स्वास्थ्य विभाग के विज्ञापन में
स्त्री:
जो नारी भी होती है
औरत भी होती है
और महिला भी…
स्त्री सब कुछ होती है
स्त्री, स्त्री होती है।
[डॉ. ए. दीप की कविता]