देश के 70 साल के लोकतांत्रिक इतिहास में 2017 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव राजनीतिक आलोचना और प्रतिवाद के ऐसे अवसर के रूप में याद किया जाएगा, जिसमें संवाद, समझ और संवेदना की सारी मर्यादा तार-तार हो गई। हमेशा से देश की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाते आ रहे इस राज्य में विकास और राजनीति के मूलभूत मुद्दों से कहीं दूर भटककर पूरा चुनाव अभियान स्तरहीन आरोपों-प्रत्यारोपों और वार-पलटवार में सिमटता दिखा। शब्द-युद्ध का जैसा अशोभनीय और ओछा स्तर इस चुनाव में रहा, वैसा पहले कभी न था। एक उदाहरण देखिए – ‘वह’ दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के शाहरुख थे, पर निकले शोले के गब्बर सिंह। या फिर ये कि सदी के महानायक अब गुजरात के गधों-खच्चरों का प्रचार बंद करें, जिसके प्रत्युत्तर में कहा गया कि हम गुजरात में शेर की ही तरह गधों की भी परवरिश करते हैं।
ज्यों-ज्यों चुनाव के चरण बीते, त्यों-त्यों चुनावी ‘हमाम’ में सारे बड़े-छोटे दल और सारे बड़े-छोटे नेता नि:संकोच ‘नंगे’ होते गए। सबकी भाषा, शैली और अभिव्यक्ति एक-सी होती चली गई। कभी धड़ल्ले से बोला गया कि गांव में कब्रिस्तान बने, तो श्मशान भी बने। रमजान पर भरपूर बिजली मिले तो, दिवाली पर भी मिले। काशी से चुने गए हैं, तो झूठ न बोलें। तो कभी विशेष ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए बीबीसी का मतलब बुआ ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन, बीएसपी का मतलब बहनजी संपत्ति पार्टी, भाजपा का मतलब भारतीय जुमला पार्टी और नरेन्द्र दामोदरदास मोदी का मतलब निगेटिव दलित मैन बताया गया। स्कैम को तो खैर खास इज्जत बख्शी गई और उसके दो मतलब निकाले गए। पहले खेमे ने इसका मतलब समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और मायावती बताया तो दूसरे ने सेव कंट्री फ्रॉम अमित शाह एंड मोदी। यहां तक कि इऩ चुनावों में फांसी चढ़ चुके कसाब को भी जिन्दा किया गया। एक बड़े दल के अध्यक्ष ने जहां कसाब को क-कांग्रेस, स-सपा, ब-बसपा के रूप में परिभाषित किया, वहीं एक दूसरे दल की अध्यक्ष ने सीधे उस दल के अध्यक्ष को ही कसाब कहना मुनासिब समझा।
कुल मिलाकर स्थिति हरि अनंत हरि कथा अनंता वाली है और ऊपर की बातें बानगियां भर हैं। अभी तो एक बेटे के हाथों पिता को वनवास मिलना, ‘गंगा के गुनहगार’ को खोजना और देश की सबसे पुरानी पार्टी को पुरातत्व विभाग द्वारा ढूंढ़े जाने की भविष्यवाणी जैसा कितना कुछ बाकी है। और जनाब, जब मुख्यंमंत्री की लड़ाई में स्वयं देश का प्रधानमंत्री अपना कद भूलकर कूद जाए और ऐसे में कोई उन्हें मुख्यमंत्री पद का अघोषित उम्मीदवार बोल बैठे तो इसमें अचरज क्या है?
बहरहाल, चलने से पहले एक सवाल। क्या आपको नहीं लगता कि उत्तर प्रदेश में पिछले डेढ़-दो महीने में हुआ शब्द-युद्ध राजनीति विज्ञानियों और भाषा वैज्ञानिकों के लिए शोध का अच्छा विषय है और सभ्य कहे जाने वाले समाज के लिए चिन्ता का?
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप