देश विरोध के मूड में है। राजधानी से लेकर जिला तक में ‘रंग-बिरंग’ के विरोध हो रहे हैं। आभासी दुनिया से लेकर कॉलेज कैम्पस तक। हर रंग का विरोध। गाली-गलौज, धक्का-मुक्की सब। जब इतना सब हो रहा है, तब किसान को लेकर भी हो-हल्ला हो, ऐसा मेरा मन करता है। लेकिन गांव के रामवचन बाबू और उस्मान चाचा का कहना है कि ‘भक्त हो या अ-भक्त, वाम हों या दक्षिण, इन्हें खेत-पथाड़ से गंध लगता है। किसानों के आंदोलन, विरोध-प्रदर्शन, आलू-धान के कम मूल्य जैसे विषयों पर टीवी-अखबार में थोड़े बहस होगी?’ इन दोनों की बातें सुनते हुए लगा कि सचमुच किसानी-समाज अपनी लड़ाई लड़ने को खुद ही तैयार नहीं है। हम खुद के लिए सड़क पर उतरने को तैयार नहीं। आलू की कीमत कम मिलती है, तब भी हम अपने भाग्य का रोना रोते हैं और अगली फसल बोने में जुट जाते हैं। मगर अब किसान को संगठित होना होगा। इस विरोध-प्रतिरोध काल में असली से लेकर आभासी दुनिया तक किसान की समस्याओं को उठाना होगा। सोचिए, जब गधे को लेकर बात हो सकती है, तब क्यों नहीं आलू की बात हो? जरा फसल की वाजिब कीमत और उपज के बारे में सोचिएगा। आप सब जब किसान के हक के लिए लड़ेंगे, तब भी टीवी पर दिखाई देंगे।
बोल डेस्क [गिरीन्द्र नाथ झा की फेसबुक वॉल से साभार]