हमारे सेंसर बोर्ड ने टोकियो इंटरनेशनल अवार्ड जीत चुकी कोंकणा सेन अभिनीत फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ को प्रमाणपत्र देने से इनकार कर दिया है। इसकी वजह बताते हुए बोर्ड ने लिखा है कि यह कुछ ज्यादा ही ‘महिला केन्द्रित’ है। फिल्म के यौन दृश्यों और भाषा पर भी बोर्ड ने आपत्ति जताई है। रत्ना पाठक शाह, आहना कुमरा, प्लाबिता बोरठाकुर, सुशांत सिंह, विक्रांत मैसी और शशांक अरोड़ा इस फिल्म के अन्य मुख्य कलाकार हैं। फिल्म का निर्देशन किया है अलंकृता श्रीवास्तव ने और इसके निर्माता हैं मशहूर फिल्मकार प्रकाश झा।
केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) ने फिल्म के निर्माता प्रकाश झा को भेजे पत्र में फिल्म को प्रमाणित नहीं किए जाने का कारण बताते हुए लिखा है कि “फिल्म की कहानी महिला केन्द्रित है और उनकी जीवन से परे फैंटेसियों पर आधारित है। इसमें यौन दृश्य, अपमानजनक शब्द और अश्लील ऑडियो हैं और यह फिल्म समाज के एक विशेष तबके के प्रति अधिक संवेदनशील है, इसलिए फिल्म को प्रमाणीकरण के लिए अस्वीकृत किया जाता है।”
बहरहाल, अपनी ‘बोल्डनेस’ के कारण पाबंदी झेल रही यह फिल्म देश के एक छोटे शहर की अलग उम्र की चार महिलाओं के जीवन को दिखाती है, जिसमें वे कई तरह की ‘आजादी’ की तलाश करती हैं। फिल्म के ट्रेलर से लगता है कि ये महिलाएं ‘बुर्का’ फेंककर दमघोंटू ‘पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बाधाओं’ को पार कर खुली हवा में सांस लेना चाहती हैं। वे दोस्तों के साथ धूम्रपान करना चाहती हैं, कंडोम पर अपने साथी के साथ बात करना चाहती हैं, अपने शरीर के संग पतंग की तरह उड़ना चाहती हैं और इस तरह ‘लिपस्टिक’ उनके लिए ‘स्वतंत्रता’ (जिसे असल में ‘स्वच्छंदता’ कहा जाना चाहिए) के उद्घोष की तरह आती है इस फिल्म में।
इस फिल्म पर सेंसर बोर्ड का फैसला आते ही स्वाभाविक तौर पर उसका विरोध भी शुरू हो गया है। फिल्म समुदाय के कुछ लोग और कुछ ‘विशेष किस्म के बुद्धिजीवी’ इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बता रहे हैं। फिल्म की निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव बोर्ड के इस फैसले को महिलाओं के अधिकार पर हमला करार दे रही हैं। इन सारे शोर-शराबों के बीच, कौन सही है और क्या गलत के झगड़े में पड़े बिना, कुछ सवाल लगातार मन और मस्तिष्क को मथ रहे हैं कि क्या स्त्रियों की सारी समस्याएं और पितृसत्तात्मक समाज की सारी बाधाएं स्त्री-शरीर से शुरू होकर स्त्री-शरीर पर ही खत्म होती हैं, जैसा कि आजकल की ज्यादातर फिल्मों में बताया और उससे अधिक दिखाया जा रहा है? क्या अपने शरीर को मुक्त कर सचमुच सारी कुंठाओं और जड़ताओं से मुक्त हुआ जा सकता है? धूम्रपान से कैंसर केवल पुरुषों को होता है और स्त्रियों के लिए वो आजादी, आत्मनिर्भरता और ऊर्जा का स्रोत बन जाता है? और अंत में ये कि क्या आज सिनेमा से लेकर साहित्य तक में स्त्रियों को ‘बोल्ड’ दिखाने के नाम पर उन्हें ‘बाजारू’ नहीं बनाया जा रहा है?
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप