जिस दुनिया में 76 वर्ष पहले पैदा हुआ और रहना शुरू किया, उसमें सारी अपर्याप्तताओं के रहते भी, संभावनाएं मौजूद थीं। हमें यह भ्रम भी था कि हम इन संभावनाओं को फलीभूत कर सकते हैं, कि हम दुनिया को बेहतर बनाने में कुछ भूमिका निभा सकते हैं। कुछ हद तक लगा कि वैसी दुनिया बनने भी लगी। लेकिन अब लगता है कि वह दुनिया, लगभग हर दिन, टूट-बिखर रही है। आज हम जिस दुनिया में हैं, वह कट्टर, असहिष्णु, हिंसक, हत्यारी, हर तरह से दूसरों से नफरत करने वाली हुई जा रही है। हमारी विडंबना यह है कि हम तकनीकी ढंग से मनुष्य के इतिहास के सबसे सक्षम युग में हैं, पर मानवीय दृष्टि से अधिक बर्बर और असभ्य होते जा रहे हैं। यह सूरत अमेरिका, यूरोप, एशिया, लातीनी अमेरिका, भारत आदि सभी जगह है। विचारों का ऐसा अकाल पहले कभी नहीं रहा। आज संसार को मथने वाला कोई विचार नहीं है। पुराने सार्वभौम विचार अक्सर दुर्गति को प्राप्त हुए हैं। जो विचार इस समय पूरे लोकतांत्रिक ढंग से लोगों को उत्तेजित कर रहे हैं, वे बहुत हीन, मानव-विरोधी विचार हैं। उनका प्रतिरोध है, पर उसका प्रभाव बहुत क्षीण है। फिर भी, यह अबोध सा विश्वास बना हुआ है कि रचकर ही बचाया जा सकता है। इससे पहले कि हम सभी अंधेरे में गुम हो जाएं, हमें रोशनी के लिए अपनी कोशिश छोड़नी नहीं चाहिए।
बोल डेस्क [‘सत्याग्रह’ में अशोक वाजपेयी]