बिना किसी हील-हुज्जत से अगर यह फेरबदल संभव हुआ है, तो इसका बड़ा श्रेय भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की व्यावहारिकता और समय की नब्ज पहचानने की उनकी बेजोड़ क्षमता को जाता है। ऐसा आमतौर पर क्रिकेट खेलने वाले दूसरे मुल्कों में नहीं होता। वह 2014 के आखिरी दिनों में धोनी का टेस्ट मैच से कप्तानी छोड़ने का अचानक लिया गया फैसला ही था, जिसके कारण भारतीय क्रिकेट टीम के गोल्डन ब्वॉय कहे जाने वाले विराट कोहली के लिए टेस्ट-कप्तानी की पिच तैयार हुई। और करीब डेढ़ साल के इस ‘प्रोबेशन पीरियड’ में कोहली सभी तरह की जिम्मेदारी उठाने के काबिल बने। यह कहा जाता है, और इसे मानना भी चाहिए कि बतौर कप्तान एमएस धोनी के रिकॉर्ड की बराबरी करना आसान नहीं होगा। ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है, जो उन्होंने खेल के सभी प्रारूपों में हासिल नहीं की। फिर चाहे छोटे संस्करणों के दो वर्ल्ड कप जीतना हो, चैम्पियन्स ट्रॉफी हो, इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में उम्दा रिकॉर्ड हो या फिर नंबर-एक टेस्ट टीम की रैंकिंग हासिल करना। असल में, एक कप्तान के रूप में भारतीय क्रिकेट में बने रहने की बिल्कुल अलग शर्त होती है। हिन्दुस्तान में कोई खिलाड़ी लंबे समय तक कप्तान तभी बने रह सकता है, जब वह न सिर्फ एक जैन भिक्षु की तरह अपने धैर्य का परिचय दे, बल्कि क्रिकेट के दीवाने मुल्क की उम्मीदों को भी पूरा करे। अगर धोनी या गांगुली अपने मुकाम तक पहुँच सके, तो इसकी वजह उनकी यही काबिलियत रही है। विराट कोहली को अपने अंदर भी यही काबिलियत पैदा करनी होगी, क्योंकि यही वह क्षेत्र है, जहाँ उनको सबसे ज्यादा चुनौती मिलने वाली है। बेशक बतौर कप्तान कोहली के लिए चीजें आसान रही हैं; आधुनिक शैली का यह श्रेष्ठ बल्लेबाज फॉर्म में भी रहा। मगर शिखर की ओर बढ़ते उनके कदम थम भी सकते हैं, क्योंकि चढ़ाव के साथ उतार भी इस खेल का हिस्सा है। ऐसे में, कोहली के संयम न खोने की कला सीखनी होगी। उनके लिए यह वाकई सौभाग्य की बात है कि अभी कुछ दिनों तक और सीमित-ओवरों के खेल में उन्हें धोनी का साथ मिलने वाला है।
बोल डेस्क [गल्फ न्यूज़, संयुक्त अरब अमीरात से साभार]