जनरल याह्या खान जब पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, तो एक दिन उनकी सरकार ने 100 और 500 रुपये के नोट कैंसिल कर दिए। शायद वह भी काला धन साफ करना चाहते थे, पर 1970 में आम मुलाजिम की पगार ही 300-350 हुआ करती थी, इसलिए ज्यादा लम्बी लाइनें नहीं लगीं। उस जमाने में 22 बड़े पूंजीपतियों की बहुत चर्चा होती थी। जुल्फिकार अली भुट्टो ने तो 70 का चुनाव ही पाकिस्तान की जान इन 22 मोटे खानदानों से छुड़ाने के वादे पर लड़ा था। इनसे तो खैर क्या जान छूटती, एक वर्ष बाद पूर्वी पाकिस्तान से ही जान छूट गई।
वह दिन और आज का दिन 22 की जगह 150 खानदानों ने ले ली। सन् 1970 में सबसे बड़ा नोट 500 का था, आज 5,000 का है। सुना है कि 10,000 को भी लाने पर गौर हो रहा है। पिछले 50 वर्ष में नोटों के डिजाइन जरूर बदले, लेकिन नोट दोबारा कैंसिल नहीं हुए।
कोई सोचे कि पूंजीवाद अगर बेवकूफ होता, तो फिर अरबपति कैसे बनता? वह पूंजीवाद ही क्या, जो किसी भी राष्ट्र की मशीनरी से दो हाथ आगे की न सोचता हो? असली काला धन तो काले जादू की तरह है। होता भी है, और नज़र भी नहीं आता। यकीन न आए, तो करेंसी नोट बदलवाने वाली लाइनों में खड़े चेहरे ही देख लें। क्या काला धन रखने वाले चेहरे इतने ही परेशान होते हैं? आप जिन-जिन दिग्गज पूंजीवादियों के नाम जानते हैं, क्या उन्हें कभी किसी बैंक में आते-जाते देखा? मैंने तो हमेशा बैंकरों को ही काले धन से बने महलों में चक्कर लगाते देखा है।
बोल डेस्क, सौजन्य ‘बीबीसी’ [वुसतुल्लाह खान का आलेख ‘याह्या खान की नोटबंदी’]