भारत के दिव्यांग एथलीट देवेन्द्र झाझरिया ने बुधवार को रियो पैरालंपिक की भाला फेंक स्पर्द्धा में एक बार फिर स्वर्ण जीत कर इतिहास रच दिया। उन्होंने 63.97 मीटर थ्रो कर अपना ही विश्व रिकार्ड तोड़ा। बता दें कि देवेन्द्र ने इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालंपिक में 62.15 मीटर भाला फेंककर सुनहला पदक अपने नाम किया था।
1981 में पैदा हुए देवेन्द्र जब आठ साल के थे, तब पेड़ पर चढ़ते वक्त उन्हें करंट लग गया और डॉक्टरों को उनका बायां हाथ काटना पड़ा। पर एक हाथ गंवाने और सुविधाएं ना के बराबर होने के बावजूद देवेन्द्र ने नियति के आगे घुटने नहीं टेके। वो खेतों से सरकंडे को भाले की तरह फेंककर अभ्यास किया करते। बाद में उन्होंने खेजड़ी पेड़ की लकड़ियों से भाला बनाकर अभ्यास शुरू किया। मेहनत रंग लाने लगी। जब देवेन्द्र 10वीं में पढ़ रहे थे, तब एक जिला टूर्नामेंट में उन्होंने सामान्य बच्चों को हराकर स्वर्ण पदक अपने नाम किया। बाद में कोच आरडी सिंह उन्हें अपने साथ हनुमानगढ़ ले आए और उनके कदम इतिहास रचने की ओर बढ़ चले।
आज जबकि दुनिया देवेन्द्र के कदमो में है, वो बताते हैं कि इस पल के लिए 12 साल का इंतजार कितना लम्बा था। 2008 और 2012 के पैरालंपिक में उनकी श्रेणी एफ-46 को शामिल नही नहीं किए जाने के कारण एथेंस (2004) के बाद उन्हें सीधा रियो (2016) में ही मौका मिला और उन्होंने ना केवल दोबारा स्वर्ण जीता बल्कि विश्व-कीर्तिमान भी बनाया। इसके लिए उन्होंने कैसी ‘साधना’ की इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले दो साल में वो घर नहीं के बराबर जा पाए जिस कारण उनका दो साल का बेटा काव्यान उन्हें पहचानता तक नहीं।
और हाँ, देवेन्द्र की इस उपलब्धि में उनकी बेटी का बड़ा योगदान है। देवेन्द्र ने अपनी छह साल की बेटी जिया से डील की थी कि अगर वह एलकेजी परीक्षा में टॉप करती है तो उसके पापा भी पैरालंपिक में गोल्ड मेडल जीतकर लाएंगे। दोनों ने अपना वादा पूरा किया। उधर जिया ने टॉप किया और इधर देवेन्द्र ने अपना कहा निभाया।
अब बात दीपा की। रियो ओलंपिक के गोला फेंक एफ-53 इवेंट में भारत को रजत से नवाज कर दीपा मलिक ने उन तमाम लोगों को लाजवाब कर दिया जो अपंगता को सामाजिक कलंक मानते हैं। अब तक कुल तीन बड़े ऑपरेशन और 183 टांके झेल चुकीं और कमर से नीचे लकवाग्रस्त दीपा अपनी ऐतिहासिक उपलब्धि की बदौलत पैरालंपिक में देश को पदक दिलाने वाली देश की पहली महिला बन गई हैं।
45 वर्षीया दीपा एक आर्मी अधिकारी की पत्नी और दो बच्चों की माँ हैं और पिछले दस सालों से खेल रही हैं। वर्ल्ड चैम्पियनशिप, कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स में हिस्सा ले चुकीं दीपा की ज़िन्दगी में अपंगता ने एक या दो बार नहीं बल्कि तीन-तीन बार दस्तक दी, पर मनोविज्ञान की छात्र रह चुकीं दीपा ने अपने जीवन में पढ़ाई का वास्तविक उपयोग किया और हर चुनौती को जीत में बदला।
दीपा इस बात से खास तौर पर खुश हैं कि भारत में पहली बार इतने बड़े पैमाने पर और इतनी खुशी के साथ पैरा स्पोर्ट्स के बारे में बातें की जा रही हैं। वो कहती हैं कि जब हम रियो के लिए चले थे तब इतनी बातें नहीं हो रही थीं। लेकिन अब मीडिया हमारे बारे में बात कर रहा है। देर आए दुरुस्त आए।
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि देवेन्द्र और दीपा ने जैसा दम दिखाया है, उसके बाद अपने देश में पैरा स्पोर्ट्स की तस्वीर बदलेगी और लोगों में जागरुकता बढ़ेगी। वैसे चलते-चलते बता दें कि दीपा के साथ उनकी बेटी भी पैरा स्पोर्ट्स से जुड़ी हुई हैं। दोनों माँ-बेटी ना केवल एक साथ खेली हैं, बल्कि दोनों ने मेडल भी लिए हैं।
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप