मिथिला लोक फाउंडेशन ने मिथिला पाग को ‘स्टेट कैप’ का दर्जा देने की मांग मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से की है। फाउंडेशन के अध्यक्ष डॉ. बीरबल झा समेत दस सदस्यों ने पत्र के माध्यम से आग्रह किया है कि मिथिला पाग को स्टेट कैप घोषित करें। उनका तर्क है कि महाराष्ट्र फेटा से, राजस्थान साफा से और हिमाचल प्रदेश पहाड़ी टोपी से पहचाना जाता है। दूसरी तरफ बिहार का अपना कोई स्टेट कैप नहीं है। उनका मानना है कि मिथिला जो बिहार ही नहीं पूरी दुनिया में अपनी सांस्कृतिक पहचान रखता है, वहाँ पाग खासा प्रचलित है और इसमें स्टेट कैप घोषित होने की सभी संभावनाएं मौजूद हैं। इससे बिहार की ‘ब्रांडिंग’ को भी बल मिलेगा।
बता दें कि मिथिला लोक फाउंडेशन पिछले कुछ महीनों से ‘पाग बचाओ अभियान’ में लगा हुआ है। इस अभियान की शुरुआत इस साल 28 फरवरी को दिल्ली में हुई थी। तब लगभग 500 लोगों ने ‘पाग मार्च’ में हिस्सा लिया था। उसके बाद बिहार के मैथिली भाषी प्रमुख शहरों में भी इस उद्देश्य से रैलियां निकाली गईं।
पाग की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विशिष्टताओं पर प्रकाश डालते हुए बिहार के मिथिलांचल अन्तर्गत दरभंगा संसदीय क्षेत्र का तीन बार प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद व पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद कहते हैं कि इसकी उत्पत्ति प्राचीन काल में उस समय हुई थी जब विभिन्न शाही परिवारों के लिए उनका विशेष ‘ताज’ प्रचलन में आया। कालांतर में पगड़ी और टोपी के मिश्रित रूप ‘पाग’ का इस्तेमाल मिथिला के आम लोग भी करने लगे और धीरे-धीरे यह स्थानीय पहचान बन गया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मिथिला में पाग का विशिष्ट महत्व है। पर यहाँ यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या पाग सम्पूर्ण मिथिला का सांस्कृतिक प्रतीक है? क्या तीन करोड़ से भी ज्यादा मैथिलीभाषियों की सांस्कृतिक अस्मिता इससे एक समान जुड़ी है? निश्चित तौर पर इसका उत्तर हमें ‘ना’ में मिलेगा। दरअसल हर क्षेत्र के नागरिकों की सामुदायिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ उनकी अलग-अलग जातीय पहचान भी होती है, और पाग का संबंध इसी जातीय पहचान से है। अपवादों को छोड़ दें तो पाग की प्रथा मिथिला में मूलत: ब्राह्मण और कायस्थ जातियों में ही पाई जाती है।
गौर से देखें तो इन जातियों के पाग की संरचना में भी एक खास किस्म की भिन्नता होती है, जिसे लोग आसानी से नहीं देख पाते। पहचान की यह भिन्नता पाग के अगले भाग की मोटी-सी पट्टी में होती है। इससे आगे की व्याख्या यह है कि इन दो जातियों में भी सारे लोग पाग नहीं पहनते। परिवार या समाज के सम्मानित व्यक्ति इसे धारण करते हैं। यह उनके ज्ञान और सामाजिक सम्मान का सूचक है। पर बदलते समय के साथ ये सम्मानित जन भी पाग का उपयोग केवल विशिष्ट अवसरों पर करते हैं और वो भी रस्मअदायगी के तौर पर।
दूसरा प्रसंग लाल पाग का है। लाल पाग विशुद्ध रूप से उक्त दोनों जातियों के लिए वैवाहिक प्रतीक है। इसे केवल विवाह या विवाह से संबद्ध लोकाचारों में दूल्हा पहनता है। लेकिन इसकी संरचनात्मक असुविधा (क्योंकि इसकी बनावट ऐसी है कि थोड़ा भी झुकने पर यह सिर से गिर जाता है) के कारण अब दूल्हा भी इसे केवल खानापूरी या रस्म भर पूरा करने के लिए पहनता हैं।
ऐसे में पाग को सम्पूर्ण मिथिला की सांस्कृतिक पहचान मानना और इससे भी आगे उसे पूरे बिहार से जोड़ देना उचित प्रतीत नहीं होता। इसमें पूरे मैथिल समाज की भागीदारी भी नहीं होगी, बिहार की तो बात ही क्या। एक बात और, अपनी सांस्कृतिक धरोहरों पर गर्व करना अच्छी बात है, पर उन्हें जानना बेहद जरूरी है। परम्परा को जाने बगैर उसका समुचित सम्मान और स्थान संभव ही नहीं।
‘बोल बिहार’ के लिए रूपम भारती