कविता करके तुलसी ना लसे / कविता लसी पा तुलसी की कला… कवि, भक्त, प्रकांड पंडित, सुधारक, लोकनायक, भविष्य के स्रष्टा – अनन्त रूप हैं तुलसी के और इन अनन्त रूपों की अनगिनत छवियां देखी जा सकती हैं ‘रामचरितमानस’ में। एक ऐसी कृति जो अब तक हमारा मार्गदर्शक रही है और तब तक रहेगी जब तक संसार में शब्दों की सत्ता रहेगी।
डॉ. ग्रियर्सन ने बिल्कुल सही रेखांकित किया था कि तुलसीदास बुद्ध के बाद भारत के सबसे बड़े लोकनायक हैं। एक सच्चा लोकनायक ही ज्ञान और भक्ति का, शील, शक्ति और सौन्दर्य का, सगुण और निर्गुण का, व्यक्ति और समाज का, धर्म और संस्कृति का, राजा और प्रजा का, वेद और व्यवहार का, विचार और संस्कार का समन्वय कर सकता है। इन सबको साथ लेकर चल सकता है। तुलसी ने अपने ‘रामचरितमानस’ में यही किया है।
हम जीवन को जिस भी कोण से देखना चाहें, हम उसकी जो भी परिभाषा गढ़ना चाहें, हमारी जीवन-यात्रा जिस भी पड़ाव पर हो – ‘रामचरितमानस’ का कोई ना कोई पात्र आदर्श बनकर राह दिखाने को हमारे सामने खड़ा होगा – कभी राम, कभी सीता, कभी लक्ष्मण, कभी भरत, कभी हमुमान, सुग्रीव और अंगद तो कभी केवट और शबरी के रूप में। आज हम इक्कीसवीं सदी में हैं, फिर भी हमारा समाज और संस्कार वर्गों और जातियों के खाँचे में बंटा है। उधर एक तुलसी हैं जो आज से सैकड़ों साल पहले यह दिखाने का साहस कर सके थे कि राम की ‘लीला’ समाज के अन्तिम छोड़ पर खड़े ‘शबरी’ और ‘केवट’ के बिना अधूरी है। उनके सहयोग के बिना राम भी राम नहीं हो सकते थे।
रामचरितमानस में तुलसी ने रामराज्य की कल्पना की और राम के रूप में राजा का आदर्श सामने रखा। इस राम के राज्य में लोग दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्त होंगे, तभी वह ‘रामराज्य’ कहलाएगा। तुलसी के यहाँ भक्ति का मतलब अपनी आँखें मूंदकर भगवान के पीछे चल देना नहीं है। उनकी भक्ति पहले भगवान को अपनी कसौटी पर कसती है, जाँचती है, परखती है और तब अपना सर्वस्व भगवान के चरणों में सौंपती है। तुलसी के मापदंड पर भगवान भी तभी भगवान हैं, जब वे ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ हैं।
आज जबकि हम वैचारिक और सांस्कृतिक पतन के दौर में हैं और हमारे राम-रहीम हमारे कुकृत्यों से शरमाकर हमारे बनाए मन्दिर-मस्जिद में रहने को तैयार नहीं, ऐसे में उन्हें अगर ‘पनाह’ मिल सकती है तो किसी गीता में, किसी कुरान में, किसी बाइबिल या गुरुग्रंथसाहब में या फिर तुलसी के ‘मानस’ में। इसलिए ‘मानस’ आज अधिक मौजू है। इसकी प्रासंगिकता इसलिए भी पहले से कहीं अधिक है कि राम की लड़ाई एक रावण से थी और हमारे हर तरफ रावण ही रावण हैं। जातिवाद का रावण, आतंकवाद का रावण, महंगाई का रावण, बेरोजगारी का रावण, अशिक्षा का रावण, साम्प्रदायिकता का रावण, भ्रष्टाचार का रावण और ग्लोवलाइजेशन के नाम पर मुँह फैलाए बाज़ार का रावण – आज रावण के दस नहीं अनगिनत चेहरे हैं। इन तमाम रावणों से लड़ने की खातिर हमें अपने भीतर छिपे ‘राम’ की शरण में जाना होगा और राह दिखाने को केवल और केवल तुलसी ही मिलेंगे, ‘मानस’ हाथ में लिए।
लकीर के फकीर होकर हम ‘रामचरितमानस’ को नहीं समझ सकते। तुलसी की इस अद्भुत कृति को हमें आज के संदर्भ में देखना होगा, आज की जरूरतों से इसे जोड़ना होगा और आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेजना होगा, तभी इसके रचयिता की जयंती सार्थक होगी।
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. रवि से साभार