हालांकि 1947 तक देश में लगभग उन सभी ‘वादों’ का जन्म या प्रवेश हो चुका था जो अभी भी अपने परिवर्तित या छिन्न-भिन्न रूप में देखे जा सकते हैं, लेकिन 1947 तक ये सभी ‘वाद’ स्वतंत्रता के महान यज्ञ में अपनी-अपनी आहुति दे रहे थे और इनमें से अधिकांश किसी-ना-किसी रूप में कांग्रेस से ही सम्बद्ध थे। अभी इनका कोई स्वतंत्र रूप या आकार नहीं था, बल्कि ये सभी महज विचार के रूप में थे और कई अवसरों पर मतभेद के बावजूद कांग्रेस को समृद्ध ही कर रहे थे। गौरतलब है कि कांग्रेस 1947 तक एक राजनीतिक दल ना होकर एक आन्दोलन थी और इसका उद्देश्य था ‘पूर्ण स्वराज्य’, इसीलिए गांधीजी आज़ादी के बाद कांग्रेस का अस्तित्व बनाए रखने के पक्षधर नहीं थे।
खैर, ऊपर कही बातें समाजवाद के संदर्भ में हैं, जो 1947 के बाद भारत में अपने स्वतंत्र अस्तित्व में आया। कई महापुरुषों ने ‘समाजवाद’ के इस वृक्ष को सींचा, संस्कारित किया, वक्त-बेवक्त के थपेड़ों से बचाया और ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ तक समाजवाद अपने सम्पूर्ण यौवन को पा चुका था। किसी भी व्यक्ति, समाज, सभ्यता या आन्दोलन का यौवनकाल उसके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव होता है क्योंकि यही वह समय है जबकि अपना ‘चरम’ पाया जा सकता है और यही वह समय है जब आगे की दिशा तय करनी होती और स्वयं को भटकाव से बचाना होता है।
सम्पूर्ण क्रान्ति निश्चित तौर पर समाजवादी आन्दोलन का चरम थी लेकिन इसके बाद समाजवाद का दायित्व और बढ़ चुका था और बीती सदी के आखिरी दशक आते-आते इसे एक बार फिर संस्कारित किए जाने की जरूरत थी क्योंकि जिस ‘समाज’ के लिए ये ‘वाद’ था वो तब तक जर्जर हो चुका था। ‘समाज’ और ‘वाद’ दोनों ही अर्थहीन हो रहे थे और यही वह समय था जब एक बार फिर जरूरत थी कर्पूरी की, कर्पूरी सरीखों की, कर्पूरी की पूरी पीढ़ी की, उन विचारों और आस्थाओं की जिनसे कर्पूरी और कर्पूरी सरीखों ने रचा था भारत और बिहार।
‘कर्पूरी ठाकुर’ – यह नाम वह धुरी है जिस पर स्वातन्त्रयोत्तर बिहार का पूरा इतिहास टिका हुआ है। यही वह नाम है जिसके होने और ना होने के बीच पिछले सात दशकों का बिहार आर-पार दिख जाता है। यही वह नाम है जो अपनी सूरत से बिहार की मिट्टी का प्रतिनिधि चेहरा लगता था तो अपनी सीरत से उस मिट्टी के संस्कार का। यही वह नाम है जो बताता है कि लघुता की महत्ता क्या होती है, अपनी सीमा में असीम कैसे हुआ जा सकता है, कैसे दी जा सकती है बोल अबोलों को और कैसे स्वयं जल-जलकर तेज रखी जा सकती है आँच समाजवाद की।
आज की पीढ़ी को ये बातें कहानी-सी लग सकती हैं कि कर्पूरी के कद का कोई नेता लाखों की सभा में साइकिल के कैरियर पर बैठकर आ सकता है और पुरानी-सी जीप या किसी मोटरसाइकिल के पीछे बैठ, बैलगाड़ी पर चढ़कर या फिर पैदल चलकर उतने लोगों के बीच जा सकता है जितने लोगों के बीच आज के राजनेता हैलीकॉप्टर से भी नहीं पहुँच पाते! और तो और, बिहार जैसे बड़े राज्य का तीन बार मुख्यमंत्री रह चुका व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद सम्पत्ति के नाम पर दो कमरे की टूटी-फूटी झोपड़ी छोड़कर गया था, ये कौन मानेगा? आज की तारीख में ये बातें अविश्वसनीय लगती हैं और लगे भी क्यों ना? क्या हममें से कोई भी अपने दिल पर हाथ रखकर कह सकता है कि ‘समाजवाद’ शब्द आज के राजनीतिज्ञों के लिए भाषण की ‘सजावट’ से अधिक भी कुछ है? आज समाजवाद राजनीति के गलियारों में लगे उस बंदनवार की तरह है जिसे समारोह के ठीक बाद बच्चे नोच-नोचकर अपना मनोरंजन करते हैं।
समाजवाद और कर्पूरी ठाकुर पर्याय हैं एक-दूसरे के। एक को जाने बिना हम दूसरे को नहीं समझ सकते और इन दोनों को जाने बिना स्वातंत्र्योत्तर बिहार को नहीं समझ सकते। शुरुआत हम कहीं से भी करें पहुँचेंगे एक ही जगह। पर जब तक हम मग्न हैं अपने ही अहं और स्वार्थ की परिक्रमा में तब तक हम कर्पूरी के ‘क’ तक भी नहीं पहुँच सकते। बस हमें एक बार समाजवाद के सार को जीवन में उतारना होगा। यह पराक्रम अपनी ‘परिक्रमा’ से निकाल हमें कर्पूरी के उन सपनों तक ले जाएगा जिन सपनों को आँखों की कोर से समाज के पोर-पोर तक पहुँचाने के लिए वे आजीवन अपनी आहुति देते रहे।
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. रवि से साभार