वंचितों और शोषितों की आवाज़ महाश्वेता देवी और तबले पर अपनी ऊंगलियों की थाप से संगीत का रस बरसाने वाले लच्छू महाराज दोनों का एक साथ यूं चले जाना अखर गया। अलग-अलग विधाओं के दो महान् और उसूल पसंद व्यक्ति जिन पर बाज़ार कभी हावी नहीं हुआ। जो इनके दिल ने कहा उन्होंने हमेशा बस वही किया।
14 जनवरी 1926 को ढ़ाका में जन्मीं महाश्वेता देवी ने बचपन से ही अपने घर में साहित्य को रचते-बसते देखा। उनके पिता मनीष घटक बेहद लोकप्रिय कवि और उपन्यासकार थे। माता धरित्री देवी भी समाजसेविका और कवयित्री थीं। चाचा ऋत्विक घटक प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक थे। अपने जीवन में दो असफल विवाह के बाद उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी वंचितों, शोषितों और उनसे जुड़े साहित्य के नाम कर दी। महाश्वेता देवी की पढ़ाई शांति निकेतन और विश्वभारती विश्वविद्यालय से हुई। 1964 में उन्होंने बिजॉयगढ़ कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। बाद में उन्होंने कई नौकरियां कीं।
अपने काम के दौरान उन्हें आदिवासियों के बीच वक्त गुजारने और उनके दुख-दर्द को करीब से समझने का मौका मिला। उनसे पाए अनुभवों को उन्होंने अपने साहित्य में शब्द-ब-शब्द उकेर दिया। जमींदारों द्वारा शोषित लोगों की कहानियों को उन्होंने देश के जन-जन तक पहुंचाने का काम किया। उनकी लेखनी ने एक ऐसे तबके को समाज में आगे लाने का कार्य किया जो आज तक हाशिये पर खड़ा अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। स्त्री समाज की बात करें तो महाश्वेता ने स्त्रियों के ऐतिहासिक और पौराणिक चरित्रों को एक नये तरीके से प्रस्तुत किया। उन्होंने उनके उस सशक्त रूप को दिखाया जो अब तक अनदेखा था। अपने हर पुरस्कार से प्राप्त राशि को वो इन्हीं गरीब, शोषित वर्ग के नाम कर देती थीं।
आदिवासियों से महाश्वेता देवी को बेहद प्रेम था। उन्होंने आदिवासी समाज के शोषण के सच को उजागर किया। आजीवन वो उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करती रहीं। उन्हीं के शब्दों में “आदिवासी मेरे जीवन का अंतिम शब्द है।” उनके इसी नि:स्वार्थ प्रेम की वजह से आदिवासी उन्हें मां कहते थे। नक्सलवाद की समस्या को भी उन्होंने मजबूती से उठाया और अपनी कई कहानियों का इसे मुख्य आधार बनाया। उनकी कई कहानियों पर फिल्मों का निर्माण भी हुआ। पद्मश्री, ज्ञानपीठ, रमन मैग्सेसे और पद्म विभूषण से सम्मानित महाश्वेता देवी की इहलीला 90 साल की उम्र में समाप्त हुई। हालांकि, सादगी और सेवा की प्रतिमूर्ति महाश्वेता देवी की ख्वाहिश थी कि वो 100 साल तक जीयें और शोषितों के लिए यूं ही काम करती रहें। लेकिन, उनकी ये इच्छा अधूरी रह गई।
लच्छू महाराज का जन्म 16 अक्टूबर 1944 को बनारस के संकटमोचन इलाके में हुआ था। उनके पिता वासुदेव नारायण सिंह भी प्रसिद्ध तबला वादक थे। अपने पिता से ही लच्छू महाराज ने ये विरासत पाई थी। 8 साल की उम्र में ही उनके तबले से प्रभावित होकर मशहूर तबला नवाज अहमद जान थिरकवा ने कहा था कि काश लच्छू मेरा बेटा होता। वो चारों घरानों के तबला वादन में सिद्धहस्त थे।
अक्खड़ और स्वाभिमानी लक्ष्मी नारायण सिंह उर्फ लच्छू महाराज ने कभी भी अपनी प्रतिभा को किसी पुरस्कार का मोहताज नहीं रखा। आर्थिक दिक्कतों को झेलते हुए भी उन्होंने कभी भी कला से समझौता नहीं किया। उनके लिए श्रोताओं की तालियां ही सबसे बड़ा पुरस्कार थीं। गोविन्दा जैसे बड़े फिल्म अभिनेता के मामा होने के बावजूद उन्होंने कभी भी इस रिश्ते के जरिये फिल्म इंडस्ट्री में अपनी बेहतरी के रास्ते नहीं तलाशे। अपनी खांटी बनारसी अंदाज के लिए वो मशहूर थे। अपने इसी स्वभाव की वजह से उन्होंने लीक और परंपराओं से अलग हटकर टीना नाम की फ्रांसीसी महिला से विवाह किया। उनकी एक बेटी हैं जो अभी स्विट्जरलैंड में रहती हैं।
इन दो अलग-अलग विधाओं के दो अनोखे व्यक्तित्व का अचानक यूं चले जाना बहुत अखर रहा है। साहित्य और कला जगत के साथ-साथ आम आदमी की आंखें भी इन दोनों की जुदाई से नम हैं। इन दोनों महान् विभूतियों के महाप्रयाण पर भीगी आंखों से हमारी श्रद्धाजंलि। हम सबको बहुत याद आयेंगे आप दोनों।
‘बोल बिहार’ के लिए प्रीति सिंह