मुहब्बत और इंसानियत का पैगाम लेकर एक बार फिर ईद आई है। भले ही अब होली, दीवाली और ईद को लोग केवल त्योहार की तरह मनाते हों लेकिन ऐसे लोगों की आज भी कमी नहीं ये त्योहार जिनके ‘संस्कार’ और ‘व्यवहार’ में होते हैं। रोजा रखने वाले हिन्दू और छठ करने वाले मुसलमान इसी की नज़ीर पेश करते हैं। लेकिन ईद के मुबारक मौके पर इन त्योहारों के ‘मर्म’ को जीवंत करने वाली इससे भी बड़ी एक मिसाल सामने आई है और वो मिसाल पेश की है तेलंगाना के वारंगल जिले की याकूब बी ने। इस मुस्लिम महिला ने एक बुजुर्ग हिन्दू की मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार की सारी रस्में खुद निभाईं जबकि मृतक के खुद के बेटे ने अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने से मना कर दिया था।
नेकदिल याकूब बी अपने पति के साथ एक वृद्धाश्रम चलाती हैं। इस आश्रम में दोनों पति-पत्नी 70 असहाय बुजुर्गों की मुफ्त में देखभाल करते हैं। बीते मंगलवार को उनके आश्रम में रहने वाले 70 वर्षीय के. श्रीनिवास की मौत हो गई। श्रीनिवास पेशे से दर्जी थे और याकूब को दो साल पहले एक बस स्टॉप पर लकवे की हालत में मिले थे। उन्होंने याकूब बी को बताया था कि उनके घरवालों ने उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया है।
श्रीनिवास की मौत के बाद याकूब ने उनके बेटे सारथ का पता लगाया पर सारथ ने यह कहकर अपने पिता का अन्तिम संस्कार करने से मना कर दिया कि उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है, इसीलिए वह हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार नहीं कर सकता। याकूब के पति उस वक्त घर पर नहीं थे इसीलिए श्रीनिवास को पिता की तरह मानने वाली याकूब बी ने उनका अंतिम संस्कार स्वयं करने की ठानी। याकूब ने हिन्दू परम्परानुसार कंधे पर घड़ा रखकर चिता की परिक्रमा की और फिर मुखाग्नि दी।
हिन्दू, इस्लाम या ईसाई, धर्म कोई भी हो, हर जगह सबसे ऊँचा दर्जा इंसानियत को दिया गया है, जिसे श्रीनिवास के बेटे ने भुला दिया। बेटे का फर्ज तक उसे याद नहीं रहा। लेकिन याकूब ने मुसलमान और उस पर भी महिला होने के बावजूद पिता समान श्रीनिवास की अन्तिम इच्छा पूरी की। ऐसा कर उसने ना केवल एक ‘संतान’ का फर्ज पूरा किया बल्कि अपने धर्म इस्लाम को भी गौरवान्वित किया। जब तक ऐसे उदाहरण मौजूद रहेंगे तब तक ईद और इस्लाम का असल पैगाम कायम रहेगा। भले ही मुट्ठी भर ‘संकीर्ण’ लोग उसकी व्याख्या अपने ‘स्वार्थ’ के लिए करते फिरें।
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप