पिता !
अब जबकि साध लिया है तुमने
अपना जीवन
अपनी परिभाषा में
और झाँकने लगा है
तुम्हारे बालों से
तुम्हारी आत्मा का प्रकाश –
तुम होते जा रहे इतने विराट
और पारदर्शी
कि देख सकता हूँ तुम्हारी संवेदनाओं को
उतरते हुए
तुम्हारे भीतर
ग्रीन लेबल चाय की घूंट-सी
और यह भी कि कैसे साध लिया है तुमने
अपने जीवन का सत्य
कि वो खेलता है तुम्हारे होठों पर
जैसे अभी-अभी तुमने खाया हो पान
लौंग, इलायची, पिपरमिंट के साथ
और उसकी लाली तैर गई हो
होठों की रेखाओं पर।
नहीं थे तुम्हारे पिता और पिता-से भाई
जब तुम ढूँढ़ रहे थे
अपने जीवन का अर्थ और अर्थ की दिशा;
तुम्हारी माँ अंतिम सत्य थीं तुम्हारा
और इस सत्य के अलावा
हर सत्य ने बताया तुम्हें
कि वे होते हैं कितने नंगे और निर्दय।
फिर आईं हम चार भाई-बहनों की माँ
उसकी पूजा और ममता और त्याग ने रचा
तुम्हारा घर
और साथ अर्द्धांगिनी के तुमने
शुरू किया सफर
संघर्ष और सफलताओं का।
बच्चे बड़े हुए तुम्हारे
बढ़ता गया परिवार
तुम संजोते रहे हममें
अपना सत्य, शिव और सुंदर संसार।
तुम लड़ते रहे
धूप, हवा और पानी से
और गढ़ते रहे स्वयं को
और बुनते रहे इतिहास अपने व्यक्तित्व का।
तुम कहते रहे –
“ईश्वर जो करते हैं
अच्छे के लिए करते हैं”
विश्वास था तुम्हें –
“अगर प्रतिभा है तुममें
तो बोलेगी ही सिर चढ़कर”
तुम मानकर चले –
“व्हाट ए मैन हैज डन
ए मैन कैन डू”
और मौसम कोई भी रहा हो
बुझा नहीं तुम्हारे संकल्प का दिया –
“मैं छोटा नहीं बन सकता
बड़ा बनने के लिए”
और तुम डाँटते रहे सब दिन –
“भय से भक्ति मत करो,
मत माँगो भगवान से भी
गिड़गिड़ाकर कुछ भी।”
तुमने अभावों को बनाया अपना गुरु
संघर्षों से ली अपनी ऊर्जा
और चलते रहे
अतीत को सारथि बना
वर्तमान के पथ पर
भविष्य की ओर।
तुम्हीं ने बताया पिता !
बाजू से हथेलियों की दूरी
तुम्हीं हो विश्वकर्मा अपने संसार के;
अपनी सीमा में जो भी दिया तुमने
असीम दिया।
तुमने संबंधों में देखा कर्तव्य
भावनाओ से सींचा विचार
शब्दों को दिया अपनी चेतना का लहू
और भरा राजनीति में अपना संसार।
पिता !
अनगिनत रूप हैं तुम्हारे
और हर रूप की हैं अनगिनत छवियाँ;
इन्हीं छवियों ने बनाया तुम्हें
इतना विराट और पारदर्शी
कि तुमने बना लिया
अपने सत्य और संवेदनाओं को
इतना सहज
जैसे चाय की घूंट
जैसे पान की लाली।
पर पिता !
यह कविता
तुम्हें
तुम्हारा ही सत्य बताने नहीं
यह जताने के लिए है
कि तुम्हारा सत्य
जानते हैं हम
कि उसी सत्य से उपजे हैं हम
कि तुम्हारे सपने
मौजूद हैं हमारी धमनियों में
कि तुम्हारे संस्कार ही पहचान हैं
हमारी हर सांस की।
पिता !
यह कविता
यह बताने के लिए है
कि तुम गुजर चुके जितनी राहों से
वे तीर्थ हैं हमारे
और हमारे वजूद का पंचतत्व
तुम्हारे कदमों की धूल से है।
अपने पिता के लिए 2003 में लिखी
डॉ. ए. दीप की कविता।