80 के दशक में हिंदी फिल्मों में वो दृश्य जिसमें गांव की पंचायत में चौधरी अपना फैसला सुनाता था, कहानी की जान होती थी। चौधरी का ये फैसला फिल्म की कहानी को टर्निंग प्वाइंट देता था। फिल्मों में चौधरी का किरदार इतना दमदार होता था कि उसके आगे सारे कलाकार बौने साबित हो जाते थे। दबंगई और चौधरी का साथ चोली-दामन सा लगता था। लेकिन, उन फिल्मों का नशा तब दिमाग से उतर गया जब केन्द्रीय शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी और बिहार के शिक्षा मंत्री डॉ. अशोक चौधरी की बेजा बहस में राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव कूद पड़े। उन्होंने मामले को एक नया रुख देते हुए शिक्षा मंत्री डॉ. अशोक चौधरी को ‘दलित’ होने की वजह से निशाना बनाने की बात कही और चौधरी साहब भी इस बात को भुनाने में लग गए। इससे ये साबित हो गया कि ये चौधरी फिल्म के दमदार चौधरी से बिल्कुल अलग हैं। सच तो यह है कि दोनों की तुलना ही बेमानी है।
अपनी बोलचाल, वेशभूषा, रंग-ढंग से अशोक चौधरी कभी भी फिल्मी चौधरी से कम नहीं लगे। फिर अचानक उनकी चौधराहट ‘दलित’ पत्ता क्यों फेंकने लगी ये बात कईयों को समझ में नहीं आई। इसे समझने के लिए चलिए एक बार उनकी पारिवारिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि पर गौर किया जाये।
अशोक चौधरी कांग्रेस के दिग्गज नेता महावीर चौधरी के सुपुत्र हैं। महावीर चौधरी इंदिरा गांधी के करीबी थे। बिहार के बेगूसराय की बरबीघा सीट से कांग्रेस के टिकट पर वो नौ बार विधायक रहे थे। वो बिहार सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी रहे थे। उनके बाद इस सीट का इस्तेमाल उनके बेटे अशोक चौधरी ने किया। पासी जैसे अत्यंत महादलित परिवार के अशोक चौधरी की पढ़ाई-लिखाई पटना के प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूल लोयेला एकेडमी से हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने दिल्ली का रुख किया। साल 2000-2005 में वो राजद-कांग्रेस गठबंधन में मंत्री रहे। साल 2010 में बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद बिहार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से महबूब अली कैसर ने इस्तीफा दे दिया। जिसके बाद इस ‘दलित’ नेता को कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत किया गया।
डॉ. अशोक चौधरी अक्सर स्टाईलिश कपड़ों में नजर आते हैं। उनका स्टाईल ‘अंग्रेजियत’ से खासा प्रभावित लगता है। भाषणों और बयानों की बात अलग है पर व्यवहार में कमोबेश यही हालत सारे ‘दलित’ नेताओं की है। बात चाहे लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान की हो या फिर यूपी की बसपा सुप्रीमो बहन मायावती की। इन सबने ‘दलित’ राजनीति का जिस तरह मखौल उड़ाया है वो किसी से छुपा नहीं है। रामविलास पासवान ने अपने बेटे, भाई, भतीजे और दामाद को बिहार से लेकर दिल्ली तक की राजनीति में उतार दिया। रामविलास के ‘चिराग’ राजनीति में आए भी तो फिल्मों से घूमकर। समाज-सेवा की किसी ‘पाठशाला’ में उनका जाना नहीं हुआ। तो वहीं, मायावती ने खुलेआम सरकारी खजाने को लुटाते हुए अपनी जिंदगी में ही अपनी मूर्तियां बनवा डालीं। हद तो ये कि इन सबने ‘दलित’ राजनीति तो की। लेकिन, ‘दलितों’ को कभी भी खुद से आगे नहीं बढ़ने दिया। परिवारवाद और पूंजीवाद का डेडली कॉम्बिनेशन क्या होता है ये देखने के लिए इनसे बेहतर मिसाल खोजे नहीं मिल सकती।
ये वो ‘दलित’ हैं जो एक बार सत्ता का स्वाद चखने के बाद मुड़कर भी उस गली में नहीं गए जहां कभी उनके पुरखे रहते थे। हर साल दलित ट्रंप कार्ड का इस्तेमाल कर ये चुनाव जीतते हैं। लेकिन दलितों की स्थिति में कोई सुधार नहीं होता। आरक्षण कोटे का लाभ भी सबसे पहले इन्हीं ‘दलित’ राजनेताओं के परिवारों को मिलता है। भूखा, गरीब, पिछड़ा दलित आज भी अपनी उसी पुरानी हालत में है जैसा वो सालों पहले था। जमीनी स्तर पर उन्हें आगे लाने का प्रयास ये नेता करें या ना करें। लेकिन, अपनी जाति पर हमला होने का रोना बार-बार रोते हैं। आरक्षण की 66 साल पुरानी रोटी को चुनावी तवे पर हर बार पकाया जाता है और आगे भी पकाया जाता रहेगा।
देश और राज्य के ये तथाकथित ‘दलित’ नेता कितने ‘दलित’ हैं, ये सभी जानते हैं। लेकिन कोई भी एक-दूसरे की पोल नहीं खोलते। क्योंकि वो जानते हैं कि हमाम में सभी नंगे हैं। वास्तव में ‘दलितों’ का जितना शोषण उनके अपने नेताओं ने किया है उतना गैरों ने भी नहीं किया। नजर उठाकर देख लीजिए एक भी ऐसा दलित नेता खोजे नहीं मिलेगा जो अपनों की बस्ती में रहता हो। सफल होते ही सबसे पहले वो अपना आशियाना अलग करते हैं। आखिर ये कैसी समता है जो अपनों से अपनों को अलग करती है?
तथ्यों को तथ्यों से काटा जाता है। भावनायें भड़का कर क्षुद्र राजनीति की जाती है। अगर सचमुच इन नेताओं को ‘अपने लोगों’ की फिक्र है तो उन्हें समाज में उनकी स्थिति सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। ताकि ‘दलित’ शब्द सम्मान का परिचायक बन सके। तभी वास्तव में ये ‘दलित नेता’ कहलाने योग्य बन पायेंगे। वर्ना बातें तो आती-जाती रहेंगी और आरोप-प्रत्यारोप का ये खेल यूं ही चलता रहेगा।
‘बोल बिहार’ के लिए प्रीति सिंह