‘भारत-चीन भाई-भाई’ नारे की आड़ में भारतीयों ने अपनी पीठ पर अविश्वास का जो खंजर सहा था, उसकी टीस आज भी हरेक देशवासी के मन में है। ग्लोबलाईजेशन और मुक्त व्यापार की बदौलत भले ही आज भारतीय घरों में चीनी सामान मिल जायें। लेकिन, भारतीय दिलों में चीनियों के प्रति जो अविश्वास है, वो जस-का-तस है। कमोबेश यही हालत चीन की भी है। चीन ने भी भारत को अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी के तौर पर देखा है। इस प्रतिद्वंद्विता में स्वस्थ मानसिकता की भावना कहीं से भी नहीं है। ऐसे में अचानक चीन का भारत पर मेहरबान हो जाना देश के लोगों के कान खड़े कर देता है, सिवाय भारत के कम्युनिस्टों को छोड़कर। कम्युनिस्टों के मन में इस चीनी श्रद्धा की क्या वजह है? ये एक अलग बहस का मुद्दा है। इस पर फिर कभी बात होगी। अभी बात चीन द्वारा पहली बार सार्वजनिक तौर पर मुंबई हमले में पाकिस्तान की भागीदारी स्वीकारने पर।
कुछ ही दिनों पहले चीनी सरकारी चैनल शंघाई टेलीविजन और चाइनीज टेलीविजन ने 26/11 को हुए हमले पर एक वृत्तचित्र दिखाया। इसमें लश्कर-ए-तैयबा को भारत पर हमले की योजना बनाते और उसे क्रियान्वित करते दिखाया गया है। वृत्तचित्र में आतंकी अजमल कसाब के कबूलनामे के फुटेज को भी दिखाया गया है। ये वृत्तचित्र राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के दौरे से ठीक पहले दिखाया गया था।
ये वही चीन है जो इसके पहले मुंबई हमले में पाकिस्तान का हाथ होने से इंकार करता रहा है। इसके अलावे उसने 26/11 के मुख्य आरोपी जकीउर रहमान लखवी और हाफिज सईद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई में भी इस्लामाबाद का साथ दिया था। इसलिए चीन द्वारा उठाया गया ये कदम पूरी दुनिया के लिए अप्रत्याशित है। चीन ने हमेशा पाकिस्तान की बांहों में बांहें डालकर गलबहियां की है। छद्म युद्ध का सहारा लेकर भारतीय भूमि पर अवैध कब्जा जमाया है। उसने ना केवल हिमालय के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया है बल्कि अरुणाचल प्रदेश को अपने देश के नक्शे में शामिल करने तक की हिमाकत की है। अपने साथ-साथ पाकिस्तान को भी ऐसा करने के लिए चीन हमेशा उकसाता रहा है और इसके लिए उसने पाकिस्तानी सरकार को यथासंभव मदद भी दी है। इतना ही नहीं, सालों पुरानी भारत-नेपाल प्रगाढ़ता में भी चीन ने सेंधमारी करके फूट डाल दी है। आज भारत और नेपाल के रिश्तों में जो तल्खी है उसका कारण चीन ही है।
इन सबके अलावे एनएसजी की सदस्यता के मामले में भी चीन ने हमेशा भारत का विरोध किया है। ऐसे में चीन का भारत के पक्ष में ये रवैया किसी भी तरह ‘सहज’ नहीं लगता। विशेषज्ञों की राय है कि चीन ने ये कदम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को सुधारने के लिए उठाया है। लेकिन, बात उतनी सीधी भी नहीं लगती जितनी नजर आती है। चीन का इतिहास शुरू से लेकर आज तक आक्रमणकारी और अविश्वासी देश के तौर पर रहा है। उसने कभी भी अंतर्राष्ट्रीय आलोचना या प्रतिबंध की परवाह नहीं की। तिब्बत जैसे स्वतंत्र राष्ट्र को हड़पकर उसने वहां के बौद्ध भिक्षुओं का सुख-चैन छीन लिया। दलाई लामा के भारत में शरण लेने के कारण उसने सदैव इस देश से नफरत की भावना रखी। ऐसे में चीन का ये कदम ना तो विश्वास के काबिल है और ना ही अपनी छवि सुधारने के लिए उठाया गया कदम।
संभवत: इस चाल के द्वारा चीन एक तीर से कई निशाने साधने की फिराक में लगा हो। ये अलग बात है कि उन ‘निशानों’ हम अभी देख नहीं पा रहे। लेकिन, इतना तो तय है कि आज भी भारतीय 1962 की उसकी दगाबाजी को भुला नहीं पाए हैं। चीन अपने इस नये पैंतरे से भारत का विश्वास हासिल कर ले, ये फिलहाल नामुमकिन-सा लगता है।
‘बोल बिहार’ के लिए प्रीति सिंह