हिन्दी सिनेमा के सौ साल को ‘सेलिब्रेट’ करने के लिए 2013 में नई पीढ़ी के चार मशहूर निर्देशकों करन जौहर, जोया अख़्तर, अनुराग कश्यप और दिवाकर बनर्जी ने एक प्रयोगधर्मी फिल्म बनाई थी। फिल्म का नाम था ‘बॉम्बे टॉकीज’। सम्भवत: ये नाम रखने के पीछे इन निर्देशकों के जेहन में हिन्दी फिल्मों के गौरवशाली इतिहास का वो बड़ा हिस्सा रहा हो जो इस नाम के साथ जुड़ा हुआ है। दरअसल ये नाम उस फिल्म स्टूडियो का है जहाँ अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देवआनंद, देविका रानी, लीला चिटनीस और मधुबाला जैसे सितारे चमके और हिन्दी सिनेमा के आकाश पर छा गए और यही वो जगह है जहाँ पहली महिला संगीतकार सरस्वती देवी, स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मन्ना डे और कवि प्रदीप जैसी प्रतिभाएं परवान चढ़ीं।
मुंबई के मलाड पश्चिम में एसवी रोड और लिंक रोड के बीच स्थित है बॉम्बे टॉकीज। सुनकर शायद हैरत हो आपको पर हिन्दी सिनेमा को मील के कई पत्थर देने वाली इस जगह का नाम तक आज की पीढ़ी नहीं जानती। वहाँ आने-जाने वालों के लिए यह जगह बस बीटी कम्पाउंड या सिर्फ बीटी है जिसके गेट पर आपका सामना कूड़े-कचरे के ढेर से होगा। अपने अस्तित्व के लगभग बीस सालों में बॉम्बे टॉकीज ने 39 फिल्मों का निर्माण किया लेकिन आज यहाँ इस इतिहास का कोई निशान आपको ढूँढ़े नहीं मिलेगा।
बॉम्बे टॉकीज की गिनती कभी हिन्दी सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ तकनीकी स्टूडियो में होती थी। 1934 में हिमांशु राय द्वारा कुल 17 एकड़ में स्थापित यह स्टूडियो हर तरह से संसाधन-सम्पन्न और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का माना जाता था। कहा जाता है कि इस स्टूडियो के पास अपना विशाल फिल्म पुस्तकालय था। हिमांशु राय ने उच्च शिक्षा प्राप्त तकनीशियनों को इस स्टूडियो से जोड़ा था जिनमें इंग्लैंड और जर्मनी के कई कुशल तकनीशियन शामिल थे। बता दें कि ‘लाइट ऑफ एशिया’, ‘ए थ्रो ऑफ डाइस’ और ‘शीराज’ जैसी प्रसिद्ध मूक फिल्मों के निर्देशक फ्रांज ओस्टेन भी उनमें एक थे।
बहरहाल, तीस और चालीस के दशक में जब फिल्में बैनर के नाम से बिकती थीं तब प्रभात, राजकमल, कलामंदिर और बॉम्बे टॉकीज बड़े अहम नाम हुआ करते थे। कई नामचीन सितारों की जगमगाहट से सजा बॉम्बे टॉकीज इन नामों के बीच भी अपनी अलग अहमियत रखता था। अशोक कुमार की पहली फिल्म जीवन नैया (1936), बाल कलाकार के रूप में मधुबाला की पहली फिल्म बसंत (1942), दिलीप कुमार की पहली फिल्म ज्वार भाटा (1944) और देवआनंद की पहली हिट फिल्म जिद्दी (1948) यहीं बनी थी। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में खास स्थान रखने वाली फिल्में अछूत कन्या (1936), किस्मत (1943) और महल (1949) भी इसी की देन है।
कहना गलत ना होगा कि हिन्दी सिनेमा के पहले अध्याय के ज्यादातर पन्ने इसी स्टूडियो में खुलते हैं। पर आज ‘लाइट-कैमरा-एक्शन’ की जगह यहाँ मशीनों के शोर ने ले ली है। जी हाँ, आज यहाँ सिर्फ कारखाने ही कारखाने हैं जहाँ सुई से लेकर पानी के जहाज के कलपुर्जे तक बनाए जाते हैं। पर यदि आप देखना चाहें तो लगभग जमींदोज हो चुकी इस सिनेमाई धरोहर के संस्थापक हिमांशु राय के ऑफिस और बंगले की एक दीवार अब भी बीटी कम्पाउंड के बीचोंबीच खड़ी मिल जाएगी आपको। ये अलग बात है कि उसका इस्तेमाल अब ‘सार्वजनिक प्रसाधन’ के तौर पर किया जाता है।
ये वक्त की विडंबना ही है कि जिस बॉम्बे टॉकीज के बिना हिन्दी सिनेमा के सौ साल का सफर अधूरा है, उसकी सुध ना सरकार को है, ना हमारी फिल्म इंडस्ट्री को। इसका नाम उधार लेकर फिल्म बनाने वाले चारों नामचीन निर्देशक भी कुछ नहीं सोच पाए इसके लिए। ऐसे में बस एक सवाल जेहन में आता है कि क्या अपने अतीत को सम्मान दिए बिना भी हम अपने वर्तमान को भविष्य की ‘धरोहर’ बना सकते हैं..? जाहिर है कि इसका जवाब ना में होगा। तो फिर हिन्दी सिनेमा की इस धरोहर की इतनी निर्मम उपेक्षा क्यों..?
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप