मुझे नहीं पता
शहरों की चकाचौंध
हवस और हिंसा क्या होती है
मुझे नहीं बताया मेरे पूर्वजों ने
मुझे दिखलाई गई केवल
बाँह से हथेली की दूरी
और यह कहकर
भेज दिया गया जंगलों में
कि तुम स्वयं हो विश्वकर्मा
अपने संसार के
तब से अब तक
जंगल ही है मेरी दुनिया
अब जबकि
लोहे और सीमेंट नाम की चीजों से
बनने लगे हैं नये किस्म के जंगल
मैं सिमटता जा रहा हूँ हर दिन
अपने पुराने जंगल में
और हर दिन छोटी होती जा रही है
मेरी दुनिया
फिर भी खुश हूँ मैं
हाँ, खुश हूं मैं
कि अब भी पीता हूं
जीवन का रस
जो नसीब नहीं शहरों को…
क्या होती है गोयठे की महक
और कैसा होता है गेठी का स्वाद
क्या जानें लोहे और सीमेंट के जंगलवाले
मैं खुश हूँ
कि मेरी जरूरतें
बड़ी नहीं जीवन से
कि जिस कस्तूरी की तलाश है मुझे
वो मेरे ही भीतर है
मैं खुश हूँ
कि पता है मुझे
हर सिद्धार्थ का गंतव्य
कि बुद्ध होने के लिए
आना होता है उन्हें
ऐसे ही किसी जंगल में
हाँ,
बहुत खुश हूँ मैं
कि उसी बुद्ध के
मध्यम मार्ग का अभ्यासी हूँ
मैं आदिवासी हूँ।
[डॉ. ए. दीप की कविता]