देश और समाज में कहीं कुछ गलत हो रहा हो तो उस पर टिप्पणी करना, आक्रोश व्यक्त करना, सरकार को कोसना और आज के जमाने में बहुत हुआ तो फेसबुक-ट्वीटर पर अपनी राय परोस देना हमारा ‘राष्ट्रीय’ कर्तव्य हो गया है। पर क्या इससे कुछ होता भी है..? नहीं, हम अच्छी तरह जानते हैं कि ये हमारी बौद्धिक ‘जुगाली’ भर है, लेकिन हम करते कुछ नहीं। अब कन्या भ्रूण हत्या को ही लें। ये वो कुकृत्य है जिससे किसी का मनुष्य कहलाने का अधिकार छिन जाना चाहिए। पर हम अपने आसपास, कई बार तो अपने घर-परिवार में भी, ये अमानवीय कृत्य होता देखते हैं और चुप रहते हैं। मजे की बात तो ये कि हम केवल चुप ही नहीं रहते, चुप रहने को अपनी ‘समझदारी’ भी कहते हैं।
बहरहाल, विवेकशून्यता के इस दौर में अगर घर-घर जाकर कन्या भ्रूण हत्या रोकने का अभियान चलाया जाय और उस अभियान से कुछ सौ या कुछ हजार नहीं बल्कि दो लाख महिलाएं जुड़ चुकी हों तो क्या कहेंगे आप..? ठहरिए, आप कुछ कहें उससे पहले ये भी जान लें कि ये अभियान चल कैसे रहा है..? आप सुखद आश्चर्य से भर जाएंगे जब जानेंगे कि इस अभियान के तहत शादी में सात की जगह आठ फेरे लगाने का संकल्प दिलाया जा रहा है और उस आठवें फेरे का संकल्प कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए होता है। यही नहीं, अगर आप बिहार की मिट्टी से ताल्लुक रखते हैं तो ये भी जान लें कि ये ऐतिहासिक काम आपके बिहार में हो रहा है।
जी हाँ, मिथिलांचल के कई इलाकों में अब शादी में सात की जगह आठ फेरे लग रहे हैं। आठवां फेरा कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए है जिसमें वर-वधू दोनों कन्या भ्रूण हत्या रोकने की शपथ लेते हैं। इस अनोखे कदम की पहल मधुबनी जिले में स्वयंसेवी संस्था जीविका ने की है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ मुहिम को आगे बढ़ाने और समाज में गिरते हुए लिंगानुपात को रोकने के लिए फिलहाल मधुबनी के तीन प्रखंडों (खजौली, रहिका और पंडौल) में सक्रिय यह संगठन उन घरों से संपर्क करता है जहाँ शादी होने वाली हो। इसके लिए दोनों पक्षों को तैयार किया जाता है और वर-वधू की रजामंदी भी ली जाती है।
जीविका के इस आठवें फेरे ने बड़े पैमाने पर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा है। जरा सोचिए जब शादी के मंडप में दूल्हा-दुल्हन आठवां फेरा लेते हुए ये बोलेंगे कि कोख में बेटा हो या बेटी वे सोनोग्राफी सेंटर जाकर जाँच नहीं कराएंगे तब क्या बेटा-बेटी में फर्क करने वाले एकबारगी सिहर नहीं जाएंगे। चाहे किसी की चमड़ी कितनी भी मोटी क्यों ना हो स्वयंसेवकों द्वारा दिलाई गई ये शपथ उन्हें एकबारगी झकझोर जरूर देगी और यही इस अभियान की सफलता है।
दिल के रास्ते दिमाग में जगह बनाने या यूँ कहें कि संवेदना से समझ जगाने वाले इस अभियान को मधुबनी के बाद पूरे बिहार और फिर पूरे देश में पहुँचाने की जरूरत है। जिस दिन इस आठवें फेरे के बिना शादियां अधूरी मानी जाने लगेंगी उस दिन हम मनुष्यता के सबसे ऊँचे पायदान पर खड़े होंगे।
‘बोल बिहार’ के लिए डॉ. ए. दीप